अनहद पर दोहे
अनहद का अर्थ अनाहत या
सीमातीत है। इसका अर्थ समाधि की स्थिति में सुनाई पड़ने वाला नाद भी है। कबीर, गुरु नानक, मलूकदास आदि मध्यकालीन भक्त-कवियों द्वारा इस शब्द के प्रयोग ने इसे विशेष लोकप्रिय बनाया है।
इड़ा-गंग, पिंगला-जमुन, सुखमन-सरसुति-संग।
मिलत उठति बहु अरथमय, अनुपम सबद-तरंग॥
सुंदर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कांन।
हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥
सुन्दर मन मृग रसिक है, नाद सुनै जब कान।
हलै चलै नहिं ठौर तें, रहौ कि निकसौ प्रांन॥
सैना अमरत प्रेम को, जिन पीयो बड़भाग।
रिदै तैतरी बज उठे, गूँजें छत्तीस राग॥
सैन कहते हैं कि जिस-जिस ने भी प्रेमामृत का पान किया है, वे बड़भागी हैं। इस अमृत रस के पीते ही भीतर की हृदय-तंत्री बज उठती है और मधुर-मधुर छत्तीसों राग गूँजने लगते हैं।
असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर।
जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर॥
हे जीव! जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा है, वह सत्य चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर 'मैं' के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थिति है।
पाँच तत्त्व के भीतरे, गुप्त बस्तु अस्थान।
बिरला मर्म कोई पाइ हैं, गुरु के शब्द प्रमान॥
पांच तत्वों से बने इस शरीर के भीतर-स्थान में एक अदृश्य ज्ञानस्वरूप चेतन जीव निवास करता है। परंतु सद्गुरु के निर्णय वचनों के प्रमाणों से कोई बिरला उसका भेद ठीक से जान सकता है।
जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै-सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव॥
काया अंतर पाइया, त्रिकुटी के रे तीर।
सहजै आप लखाइया, व्यापा सकल सरीर॥
जिनको कंत मिलाप है, तिनं मुख बरसत नूर।
घट सीतल हिरदा सुखी, बाजे अनहद तूर॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere