वासुदेवशरण अग्रवाल के उद्धरण

हमारे भीतर जो प्राण-शक्ति है, उसी का नाम अमृत है। बच्चे के भीतर यह प्राण शक्ति या जीवन की धारा इतनी बलवती होती है कि उसके मनःक्षेत्र में मृत्यु का भाव कभी आता ही नहीं। यह असंभव है कि बच्चे को हम मृत्यु का ज्ञान करा सकें।

कला और काव्य दोनों ही का उपजीव्य भावलोक है। भाव-सृष्टि से ही आरंभ में गुण सृष्टि का जन्म होता है और फिर भाव और गुण दोनों की समुदित समृद्धि भूतसृष्टि में अवतीर्ण होती है। भाव-सृष्टि का संबंध मन से, गुण-सृष्टि का प्राण से और भूत-सृष्टि का स्थूल भौतिक रूप से है। इन तीनों की एकसूत्रता से ही लौकिक सृष्टि संभव होती है। इन तीनों के ही नामांतर ज्ञान, क्रिया और अर्थ है।

सत्य की जिज्ञासा ऋषित्व का प्रथम और अंतिम लक्षण है। सत्य का साक्षात् दर्शन जिसे हो, वह ऋषि है।
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इन स्थूल ग्रंथों की सफलता यही है कि ये जीवन में चरितार्थ हों। लिखित अक्षरों के पीछे जो वास्तविक अक्षर तत्त्व है, जिसका कभी नाश नहीं होता, उस तक पहुँचने का आवाहन इन ग्रंथों से प्रत्येक मानव को मिलता है।
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