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नाम में जो रखा है

मैं इस पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता हूँ कि नाम में क्या रखा है? मेरे पूर्वजों ने बतलाया है कि अपने माँ-बाप का नाम रोशन करना। इसलिए नाम के प्रति मैं बहुत संजीदगी रखता हूँ। मेरे गाँव में भी लोग नाम के प्रति बहुत सेंसेटिव हैं। यह कहिए कि आज की पीढ़ी से भी बहुत आगे हैं। आज की पीढ़ी कोई भी काम प्लान करके करती है। विवाह के बाद ही प्लान शुरू कर देते हैं। बेबी होगा तो क्या नाम रखा जाएगा, इस पर नौ महीने तक गहन विचार-मंथन किया जाता है। अंततः बेबी के कम से कम दो नाम तो रखे ही जाते हैं। जैसे घर का टिल्लू, बाहर में रौनक़ कहा जाता है। कुछ लोग तो पति के नाम से आधा और पत्नी के नाम से आधा जोड़कर एक नया शब्द गढ़ देते हैं। यह समझदारी है, क्योंकि बेबी में तो दोनों की हिस्सेदारी है। कुछ ऐसे लोग हैं, जो घंटों गूगल पर नाम तलाशते रहते हैं। इसके बाद ऐसा संस्कृतनिष्ठ नाम रख देते हैं कि उच्चारण करने में जीभ ऐंठ जाती है। अंत में यह तत्सम शब्द अपभ्रंश में बदल जाता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बेबी का नाम विदेशी शब्दों से ढूँढ़कर रखते हैं। 

ख़ैर, नाम रखना तो निजी पसंद है। इसमें मैं हस्तक्षेप नहीं करना चाहता। मेरा अधिकार भी नहीं है। कोई अपनी पत्नी को बेबी कहकर बुलाता है, यह उसका प्यार है। भले ही वह अर्द्धशतक लगा चुकी हों, लेकिन अब भी बेबी बनी हुई हैं... यह उनका सौभाग्य है। जैसे ही शर्मा जी अपनी बीवी को बेबी कहकर पुकारते हैं, पड़ोसन जल-भुनकर राख हो जाती है। भाई, ऐसा मत समझिएगा कि मैं माननीया देवियों का मज़ाक़ उड़ा रहा हूँ। मैं संविधान की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ। दरअस्ल, मैं नाम के महत्त्व को रेखांकित करना चाह रहा हूँ। बिना देवियों की कृपा से यह कैसे संभव हो सकता है।

सच पूछिए तो कभी मैं नामों के प्रति बेहद लापरवाह था। हुआ यों कि वर्षों बाद जब अपने महबूब शहर लौटा तो सारे नज़ारे बदले-बदले से लगे... सड़कें चौड़ी, दिल संकीर्ण... होटल-रेस्टोरेंट-कैफ़े में तब्दीलियाँ। अचानक अपनी पुरानी रामप्यारी एक्टिवा लेकर निकलने को हुआ तो बग़ल में छठवें पे-कमीशन के एरियर से ख़रीदी हुई वेस्पा नाराज़-सी खड़ी देखती रही। इच्छा थी कि ‘मोहन भोग’ जाकर रसमलाई खाऊँगा। वहाँ पहुँचकर देखा तो ‘सौतन रेस्टोरेंट’ का चमकीला बोर्ड झलक दिखला रहा था। मेरा माथा ठनका—क्या दिमाग़ पाया है, हमारे बिहारवालों ने। मुँह से निकल ही पड़ा—जिअ हो बिहार के लाला... मेरी गाड़ी लिट्टी चोखा के ठेले की ओर बढ़ चुकी थी। लिट्टी खाते हुए गाँव का पुराना ज़माना याद आया। मुख़्तसर में उसकी चर्चा भी बेमानी नहीं होगी। मेरे गाँव के लोगों का मानना है कि बाल-बच्चों ख़ासकर बेटों का नाम बाप के नाम से सुंदर और सशक्त होना चाहिए। कुछ लोग इसका बख़ूबी अनुपालन कर रहे हैं। इसका उदाहरण भी दे ही दूँ। मेरे पड़ोसी के घर एक-एक कर तीन बेटे हुए। पिता का नाम सिपाही था। उसने अपने बड़े बेटे का नाम मुंशी, मझले का हवलदार और छोटे बेटे का नाम जमादार रख दिया। सिपाही के जीते जी मुंशी की शादी हो गई थी। उसकी इच्छा थी कि उसके सामने अगर पोता का जन्म हो जाता तो उसका नाम अवश्य दरोग़ा रखता। बहरहाल, उसने बेटे को यह हिदायत देते हुए इस फ़ानी दुनिया से विदा ली कि मेरे पोते का नाम दरोग़ा ही रखा जाए। वह ज़माना ही ऐसा था, जब गाँव के लोग लाल टोपी से बहुत डरते थे। अब तो रायफ़लधारी का भी उतना ख़ौफ़ नहीं रहा।

इस नाम-चर्चा में एक बेहद ज़रूरी बात यह कि नाम का असली मान अपने घर में ही होता है। घर में आपका नाम नहीं है तो बाहर के सम्मान का कोई मूल्य नहीं है। सूबे के मालिक को लोग बाबू सुब्बा सिंह कहते थे। उनकी बड़ी पीड़ा यह थी कि घर में उनको कोई सुब्बवा भी नहीं कहता था। 

एक और दिलचस्प बात यह है कि पहले ऐसे भी लोग थे जो गाँव में रहते हुए अपने बेटे का नाम शहर के नाम पर रखते थे, जैसे : बनारस सिंह। कुछ लोग नाम के लिए नदियों का रुख़ भी करते थे—गंगा बाबू, यमुना बाबू आदि। कुछ लोग नाम में स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का भेदभाव नहीं करते थे। वे लिंग निरपेक्षता में विश्वास करते थे, जैसे : जानकी बाबू मेरे प्रिय अध्यापक थे। कभी-कभी व्यवहार में मूल नाम का लोप भी हो जाता था, जैसे संगम में सरस्वती को लुप्त माना जाता है। यमुना ठाकुर को लोग बदलकर लोगों ने जामुन ठाकुर कर दिया। 

यहाँ उन लोगों का ज़िक्र भी करना ही होगा, जिन्होंने स्त्री के आभूषणों का नाम तक छीन लिया। मेरे ही गाँव के नथुनी चौधरी अपने माँ-बाप से आज भी नाराज़ चल रहे हैं कि उनका नाम नथुनी क्यों रख दिया। रिवाज के अनुसार उनकी पत्नी, पति का नाम पूछने पर नाक की ओर इशारा कर देती हैं। 

यह सच है कि अमीन का बिगाड़ा गाँव और बाप का बिगाड़ा नाव (नाम) कोई नहीं सुधार सकता। 

जो भी हो, माँ-बाप तो चाहते हैं कि उनके बच्चों के नाम सबसे सुंदर हों। मैं अपना ही उदाहरण दूँ तो माँ-पिता ने कितना सोच-समझकर मेरा नाम रखा होगा—ललन। होश सँभालने पर शब्दकोश में इसका अर्थ देखा तो पाया—प्यारा। मैं बहुत ख़ुश हुआ। वास्तविक जीवन में अगर प्यार मिल गया होता, तो नाम सचमुच सार्थक हो गया होता। वैसे स्त्रियाँ जब बच्चों के जन्म पर सोहर गाती हैं, तो मैं बार-बार ललन शब्द सुनकर ख़ुश होता रहता हूँ। मुग़ल राजा हुमायूँ के बारे में कहा जाता है कि उसके नाम का अर्थ होता है—भाग्यवान! लेकिन देखिए, उतना बदनसीब शायद ही कोई राजा हुआ हो! 

संतोष की बात यह है कि वर्तमान समय स्त्री-पुरुष की समानता की ओर बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब पुरुषों और स्त्रियों के नाम का फ़र्क़ मिट जाएगा। 

मैं इस नाम-महिमा का समापन बहुत ख़ुशनुमा तरीक़ से करना चाहता हूँ। 

एक दिन सुबह टहलने के लिए निकला तो एक सज्जन के दरवाज़े पर कार खड़ी थी। शादी-विवाह का मौसम था। देखने से लग रहा था कि कार की सजावट दूल्हे राजा की लिए की गई थी। कार पर सुनहरे रंग का स्टीकर सटा था—‘रोहन संग ख़ुशी।’ इन तीन शब्दों ने मेरी सुबह को सचमुच ख़ुशनुमा बना दिया या कहें ख़ुशीनुमा! रोहन को ख़ुशी मिल गई। ख़ुशी आजीवन उनके साथ रहेगी। अब और क्या चाहिए? सबको ख़ुशी मिले। 

मैं यहाँ अंत में एक निवेदन करूँगा कि इतनी सदाशयता सबमें बची रहे—हम एक-दूसरे का नाम नहीं चुराएँ, नहीं बेचें। आपकी नज़र अगर तेज़ है, तो इस षड्यंत्र को आप समझ सकते हैं।

 

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