बानू मुश्ताक़ की ‘हार्ट लैंप’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार

इस वर्ष का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ के लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ को मिला है। बानू मुश्ताक़ कन्नड़ भाषा की कथाकार हैं। उनके लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ का अनुवाद दीपा भास्ती ने किया है।

बानू मुश्ताक़ की किताब ‘हार्ट लैंप’ में, दक्षिण भारत में मुस्लिम महिलाओं की मुश्किलों का मार्मिक चित्रण मिलता है। ग़ौरतलब है कि यह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार कन्नड़ कहानियों के अनुवाद को मिला है।

इससे पहले वर्ष 2022 में गीतांजलि श्री की पुस्तक ‘टॉम्ब ऑफ़ सैंड’ को यह पुरस्कार मिला था। ‘रेत समाधि’ का हिंदी से अँग्रेज़ी में अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया था।

लेखिका बानू मुश्ताक़ के कहानी-संग्रह ‘हार्ट लैंप’ को 2025 का इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ दिया गया है। 2022 में गीतांजलि श्री की जीत के बाद से इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ एक ऐसा सम्मान बन गया है, जिसका इंतज़ार भारतीय भाषाओं में रचे गए साहित्य को बेसब्री से रहता है। कई भारतीय भाषाओं की किताबें धड़ल्ले से अँग्रेज़ी में अनूदित हो रही हैं, जो एक अच्छी बात है। इस बार एक और लेखक-अनुवादक की जोड़ी का इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार जीतना वाक़ई एक उत्सव से कम नहीं है। डेज़ी रॉकवेल और गीतांजलि श्री के बाद दीपा भास्ती और बानू मुश्ताक़ की जोड़ी, 2025 में भारतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व कर रही है।

मूल रूप से कन्नड़ भाषा में लिखी गईं इन कहानियों में बानू मुश्ताक़ ने मुस्लिम पारिवारिक जीवन को केंद्र में रखते हुए ख़ासकर मुस्लिम महिलाओं के अनुभवों को उकेरा है। इन कहानियों में पितृसत्ता सबसे केंद्र पर है।

हालाँकि बानू मुश्ताक़ पिछले तीन दशकों से लिख रही हैं; लेकिन इस किताब के अनुवाद से उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली और उनका लेखन अँग्रेज़ी-पाठकों के सामने पहली बार आया, जोकि भारतीय भाषा साहित्य के लिए एक विडंबना भी है। उनकी लेखनी बंदाया साहित्य आंदोलन से जुड़ी रही है—जो कन्नड भाषा साहित्य की एक प्रगतिशील धारा रही है—जो उच्च जातीय और पुरुष वर्चस्व को चुनौती देती है। ‘हार्ट लैंप’—कहानियों का ऐसा संग्रह है जो अब एक व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँच रहा है और साहित्यिक हलक़ों में एक धीमी लेकिन ठोस हलचल पैदा कर रहा है।

बानू मुश्ताक़ की शैली ताज़गी भरी है। वह मुस्लिम महिलाओं की ज़िंदगी के रोज़मर्रा के साथ-साथ छिपे पहलुओं को बेहद सादगी और संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। उनकी कहानियाँ उर्दू साहित्य की ‘ब्रोंटे बहनों’, ख़दीजा मस्तूर, हाजरा मसरूर और इस्मत चुग़ताई की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, स्त्री-लेखन-परंपरा में एक नया रंग भरती हैं। जिस तरह ख़दीजा मस्तूर ने ‘आँगन’ जैसी रचनाओं में बँटवारे के संदर्भ में पुरुष-प्रधान राजनीति के प्रभावों को पारिवारिक ढांचे के भीतर दिखाने की कोशिश की, और जिस तरह इस्मत चुग़ताई ने अपनी विशिष्ट शैली में स्त्री-अनुभवों को अभिव्यक्त किया, उसी तरह बानू आज के समय में मौजूद स्त्री के अनुभवों को अपनी कहानियों के माध्यम से बयान करती हैं।

उनकी कहानियाँ ज़्यादा प्लॉट ट्विस्ट या कहानियों में हो रही घटनाओं पर आधारित नहीं होतीं, बल्कि उनका सौंदर्य उन बारीकियों में होता है कि घटनाएँ कैसे घटती हैं, और उनका प्रभाव स्त्री-चरित्रों पर कितना है, उन घटनाओं में पितृसत्ता कैसे काम करती है। 

जैसे, ‘The Stone Slabs for Shaista Mahal’ (शाइस्ता महल के लिए पत्थर की पट्टियाँ) कहानी शाइस्ता नाम की महिला और उसके पति इफ़्तिख़ार के बारे में है। यह कहानी ज़ीनत की नज़र से कही गई है, जिसका पति मुजाहिद, इफ़्तिख़ार का दोस्त है। इफ़्तिख़ार, शाइस्ता से बेहद मुहब्बत करता दिखता है, ऐसा मालूम होता है कि शाइस्ता के बिना इफ़्तिख़ार जी ही नहीं सकता, उस हर बात और ख़याल में शाइस्ता शामिल है। ज़ीनत कभी-कभी जलन से भर जाती है, और उसे इफ़्तिख़ार, मुग़ल सम्राट शाहजहाँ जैसा लगता है। लेकिन मुजाहिद ज़ीनत को समझाता है कि इफ़्तिख़ार को सिर्फ़ औरतों की संगत पसंद है—चाहे शाइस्ता हो, नर्गिस हो और मेहरून हो। ज़ीनत को उसकी बात पर विश्वास नहीं होता। पर जब शाइस्ता की मौत के कुछ ही दिनों बाद इफ़्तिख़ार एक बहुत छोटी उम्र की लड़की से शादी कर लेता है, जो लगभग उसकी बड़ी बेटी की उम्र की होती है, इससे ज़ीनत का दिल टूट जाता है।

इसी तरह ‘हार्ट लैंप’ कहानी—जो किताब का भी शीर्षक है, मेहरून नाम की महिला कहानी है, जिसके पति का अफ़ेयर एक नर्स के साथ है। निराश होकर मेहरून अपने मायके लौटती है, लेकिन वहाँ उसे ठुकरा दिया जाता है। उसका भाई उसे वापस पति के घर छोड़ आता है। जिस तरीक़े से ये सब हो रहा होता है, वो मेहरून को अंदर से तोड़ देता है, क्योंकि उसके स्वयं का घर उसे नहीं अपनाता, उसे ऐसे देखा जाता है—जैसे उसने कोई पाप कर दिया हो। उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता, उसे अपने बिना प्रेम के जीवन को स्वीकार करना पड़ता है।

बानू मुश्ताक़ की कहानियाँ चाहे मुस्लिम सामाजिक ढाँचे में बसी हों, पर वो सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं की कहानियाँ नहीं हैं, वे हर औरत की कहानी हैं। ‘शाइस्ता महल…’—आज के समय के रिश्तों की भी कहानी हो सकती है, कई शाइस्ता और इफ़्तिख़ार हमें हमारे आस-पास मिल जाएँगे। ये कहानियाँ एक गहरी सांस्कृतिक समझ और मानवीय दृष्टि से लिखी गई हैं, जो इन्हें असाधारण बनाती हैं।

इस संग्रह की अधिकतर कहानियाँ प्लॉट की दृष्टि से साधारण लग सकती हैं, लेकिन उनका शिल्प उत्कृष्ट है, वे परतदार, भावनात्मक और गहराई लिए हुए हैं। कहने को तो ये कहानी संग्रह में सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं की ही कहानियाँ हैं, लेकिन बानू मुश्ताक़ ने हिंदू महिलाओं के अनुभवों के बारे में भी लिखा है, जैसे संग्रह की अंतिम कहानी ‘एक बार औरत बनो प्रभु!’—जो हिंदू पारिवारिक पृष्ठभूमि में घटती है और रचना की दृष्टि से थोड़ी अधिक प्रयोगधर्मी है, क्योंकि इस कहानी में चेतना की धारा (स्ट्रीम ऑफ़ कान्शस्निस) के तत्व भी दिखते हैं। यह कहानी मानसिक और भौतिक, दोनों स्तरों पर घटती है और एक विवाहित स्त्री के संघर्ष को दिखाती है। इस कहानी का अनाम नेरैटर भगवान से विनती करता है, “यदि तुम्हें फिर से मर्द और स्त्री बनाने हों, तो अनुभवहीन कुम्हार की तरह मत बनो, धरती पर स्त्री बनकर आओ प्रभु!” क्योंकि तभी आप स्त्री की व्यथा समझ पाओगे।

इसीलिए बानू मुश्ताक़ को सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं की लेखिका कह देना उनकी रचनात्मकता को सीमित कर देना होगा। पत्रकार, लेखिका और साहित्यिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने कन्नड़ साहित्य को बहुत कुछ दिया है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं के अनुभवों को जिस गहराई और ख़ूबसूरती से उन्होंने प्रस्तुत किया है, वह सचमुच बेमिसाल है। यह संग्रह निश्चित ही अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुँचना चाहिए।

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