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रमण महर्षि

1879 - 1950 | तिरुचुली, तमिलनाडु

समादृत भारतीय संत, जीवन-मुक्त और दार्शनिक। 'मैं कौन हूँ?' के आत्म-अन्वेषण मार्ग के प्रतिपादक।

समादृत भारतीय संत, जीवन-मुक्त और दार्शनिक। 'मैं कौन हूँ?' के आत्म-अन्वेषण मार्ग के प्रतिपादक।

रमण महर्षि के उद्धरण

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समय केवल एक विचार है। हमारे पास केवल सत्य है। आप जो सोचते हैं, वह प्रकट हो जाता है। अगर आप समय कहें, तो यह समय है।

केवल इस आत्मानुसंधान : ‘मैं कौन हूँ’ के साथ ही मन को शांत कर सकते हैं।

एकांत मनुष्य के मन में है।

मनुष्य को सिद्धांतों की चर्चा करने की बजाय अभ्यास पर बल देना चाहिए।

जब मन अपने ही बारे में अनुसंधान करना बंद कर देता है तो जान लेता है कि मन जैसी कोई वस्तु नहीं है। यही सबके लिए सीधी राह है।

अपने मूल स्वभाव को जानना ही मुक्ति है।

सभी प्रकार के तप और संयमों से गुज़रकर व्यक्ति वही बनता है, जो वह पहले से है।

मन केवल विचार है। सभी विचारों में, केवल ‘मैं’ का विचार ही मूल है। इस तरह मन केवल ‘मैं’ का विचार ही है। ‘मैं’ का विचार कब पैदा होता है? इसे अपने भीतर तलाश करो, तो ये ओझल हो जाता है। यह बुद्धि है। जहाँ से ‘मैं’ का लोप होता है, वहीं से ‘मैं-मैं’ का जन्म होता है। यही पूर्णम है।

अँधेरे की तरह अज्ञान भी सत्य नहीं।

हर कोई अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में आत्मा का हत्यारा है।

जानना ही होना है।

जब सूरज उगता है तो केवल कुछ कलियाँ खिलती हैं, सारी नहीं। क्या इसके लिए सूरज को दोषी ठहराया जाएगा? कलियाँ स्वयं नहीं खिल सकतीं और इसके लिए सूरज की धूप का होना भी ज़रूरी है।

ध्यान एक युद्ध है।

पहले समर्पण करो और फिर देखो।

अपने-आप में स्थिर हो और जानो कि मैं ईश्वर हूँ।

मन की सहायता से ही मन को मारा जा सकता है।

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‘मैं करता हूँ’ यही भाव तो अवरोध है। स्वयं से पूछें : ‘कौन करता है?’

‘मैं कौन हूँ’ इस अनुसंधान का अर्थ यही है कि आप अहं के स्रोत का पता करें।

कभी कभी ऐसा समय आता है जब मनुष्य को वह सब भूलना होता है, जितना उसने सीखा हो।

‘मैं’ कौन है, इसकी तलाश करें।

‘मैं’ ही ‘मैं’ की माया को हटाता है और अंत में ‘मैं’ शेष रहता है।

याद रखें कि आप कौन हैं।

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