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पिता के पत्र पुत्री के नाम (आदमियों की क़ौमें और ज़बाने)

pita ke patr putri ke naam (adamiyon ki qaumen aur zabane)

जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (आदमियों की क़ौमें और ज़बाने)

जवाहरलाल नेहरू

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    हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया के किस हिस्से में पहले-पहिल आदमी पैदा हुए। हमें यही मालूम है कि शुरू में वह कहाँ आबाद हुए। शायद आदमी एक ही वक़्त में, कुछ आगे पीछे दुनिया के कई हिस्सों में पैदा हुए। हाँ, इसमें ज़्यादा संदेह नहीं है कि ज्यों-ज्यों बर्फ़ के ज़माने के बड़े-बड़े बर्फ़ीले पहाड़ पिघलते और उत्तर की ओर हटते जाते थे, आदमी ज़्यादा गर्म हिस्सों में आते जाते थे। बर्फ़ के पिघल जाने के बाद बड़े-बड़े मैदान बन गए होंगे, कुछ उन्हीं मैदानों की तरह जो आजकल साइबेरिया में हैं। इस ज़मीन पर घास उग आई होगी और आदमी अपने जानवरों को चराने के लिए इधर-उधर घूमते फिरते होंगे। जो लोग किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि हमेशा घूमते रहते हैं ख़ानाबदोश कहलाते हैं। आज भी हिंदुस्तान और बहुत से दूसरे मुल्कों में ये ख़ानाबदोश या बंजारे मौजूद हैं।

    आदमी बड़ी-बड़ी नदियों के पास आबाद हुए होंगे, क्योंकि नदियों के पास की ज़मीन बहुत उपजाऊ और खेती के लिए बहुत अच्छी होती है। पानी की तो कोई कमी थी ही नहीं और ज़मीन में खाने की चीज़ें आसानी से पैदा हो जाती थीं, इसलिए हमारा ख़याल है कि हिंदुस्तान में लोग सिंध और गंगा जैसी बड़ी-बड़ी नदियों के पास बसे होंगे, मेसोपोटैमिया में दजला और फरात के पास, मिस्र में नील के पास और उसी तरह चीन में भी हुआ होगा।

    हिंदुस्तान की सब से पुरानी क़ौम, जिसका हाल हमें कुछ मालूम है, द्रविड़ है। उसके बाद हम जैसा आगे देखेंगे, आर्य आए और पूरव में मंगोल जाति के लोग आए। आजकल भी, दक्षिणी हिंदुस्तान के आदमियों में बहुत से द्रविड़ों की संतानें हैं। वे उत्तर के आद‌मियों से ज़्यादा काले हैं, इसलिए कि शायद द्रविड़ लोग हिंदुस्तान में और ज़्यादा दिनों से रह रहे हैं। द्रविड़ जाति वालों ने बड़ी उन्नति कर ली थी, उनकी अलग एक ज़बान थी और वे दूसरी जाति वालों से बड़ा व्यापार भी करते थे। लेकिन हम बहुत तेज़ी से बढ़े जा रहे हैं।

    उस ज़माने में पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप में एक नई जाति पैदा हो रही थी। यह आर्य कहलाती थी। संस्कृत में आर्य शब्द का अर्थ है शरीफ़ आदमी या ऊँचे कुल का आदमी। संस्कृत आर्यों की एक ज़बान थी इसलिए इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने को बहुत शरीफ़ और ख़ानदानी समझते थे। ऐसा मालूम होता है कि वे लोग भी आजकल के आदमियों की ही तरह शेख़ीबाज़ थे। तुम्हें मालूम है कि अँग्रेज़ अपने को दुनिया में सब से बढ़कर समझता है, फ़्रांसीसी का भी यही ख़याल है कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ, इसी तरह जर्मन, अमरीकन और दूसरी जातियाँ भी अपने ही बड़प्पन का राग अलापती हैं।

    ये आर्य उत्तरी एशिया और यूरप के चरागाहों में घूमते रहते थे। लेकिन जब उनकी आबादी बढ़ गई और पानी और चारे की कमी हो गई तो उन सबके लिए खाना मिलना मुश्किल हो गया। इसलिए वे खाने की तलाश में दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने के लिए मजबूर हुए। एक तरफ़ तो वे सारे यूरोप में फैल गए, दूसरी तरफ़ हिंदुस्तान, ईरान और मेसोपो-टैमिया में पहुँचे। इससे हमें मालूम होता है कि यूरोप, उत्तरी हिंदुस्तान, ईरान और मेसोपोटैमिया की सभी जातियाँ असल में एक ही पुरखों की संतान हैं, यानी आर्यों की; हालों कि आजकल उनमें बड़ा फ़र्क़ है। यह तो मानी हुई बात है कि इधर बहुत ज़माना गुज़र गया और तबसे बड़ी-चड़ी तब्दीलियाँ हो गईं और क़ौमें आपस में बहुत कुछ मिल गई। इस तरह आज की बहुत सी जातियों के पुरखे आर्य ही थे।

    दूसरी बड़ी जाति मंगोल है। यह सारे पूर्वी एशिया अर्थात् चीन, जापान, तिब्बत, स्याम और बर्मा में फैल गई। उन्हें कभी-कभी पीली जाति भी कहते हैं। उनके गालों की हड्डियाँ ऊँची और आँखें छोटी होती हैं।

    अफ़्रीका और कुछ दूसरी जगहों के आदमी हवशी हैं। वे आर्य हैं मंगोल और उनका रंग बहुत काला होता है। अरब और फ़लिस्तीन की जातियाँ—अरबी और यहूदी—एक दूसरी ही जाति से पैदा हुई।

    ये सभी जातियाँ हज़ारों साल के ज़माने में बहुत सी छोटी-छोटी जातियों में बँट गई हैं और कुछ मिलजुल गई हैं। मगर हम उनकी तरफ़ ध्यान देंगे। भिन्न-भिन्न जातियों के पहचानने का एक अच्छा और दिलचस्प तरीक़ा उनकी ज़बानों का पढ़ना है। शुरू-शुरू में हर एक जाति की एक अलग ज़बान थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुज़रता गया उस एक ज़बान से बहुत सी ज़बानें निकलती गई। लेकिन ये सब ज़बानें एक ही माँ की बेटियाँ हैं। हमें उन ज़बानों में बहुत से शब्द एक से ही मिलते हैं और इस से मालूम होता है कि उनमें कोई गहरा नाता है।

    जब आर्य एशिया और यूरोप में फैल गए तो उनका आपस में मेल जोल रहा। उस ज़माने में रेल गाड़ियाँ थीं, तार डाक, यहाँ तक कि लिखी हुई किताबें तक थीं। इसलिए आर्यों का हरेक हिस्सा एक ही ज़बान को अपने-अपने ढंग पर बोलता था, और कुछ दिनों के बाद यह असली ज़बान से, या आर्य देशों की दूसरी बहनों से, बिलकुल अलग हो गई। यही सबब है कि आज दुनिया में इतनी ज़बानें मौजूद हैं।

    लेकिन अगर हम इन ज़बानों को ग़ौर से देखें तो मालूम होगा कि गो वे बहुत सी हैं लेकिन असली ज़बानें बहुत कम हैं। मिसाल के तौर पर देखो कि जहाँ-जहाँ आर्य जाति के लोग गए वहाँ उनकी ज़बान आर्य ख़ानदान की ही रही। संस्कृत, लैटिन, यूनानी, अँग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, जर्मनी, इटाली और बाज़ दूसरी ज़बानें सब बहिनें हैं और आर्य ख़ानदान की ही हैं। हमारी हिंदुस्तानी ज़बानों में भी जैसे हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी और गुजराती, सब संस्कृत की संतान हैं और आर्य-वंश में हैं।

    ज़बान का दूसरा बड़ा ख़ानदान चीनी है। चीनी, बर्मी, तिब्बती और स्यामी ज़बानें उसी से निकली हैं। तीसरा ख़ानदान शेष ज़बान का है जिससे अरबी और इवरानी ज़बानें निकली हैं।

    कुछ ज़बानें जैसे तुर्की और जापानी इनमें से किसी वंश में नहीं हैं। दक्षिणी हिंदुस्तान की कुछ ज़बानें, जैसे तमिल, तेलगु, मलयालम और कन्नड़ भी उन ख़ानदानों में नहीं हैं। ये चारों द्रविड़ ख़ानदान में हैं और बहुत पुरानी हैं।

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