दैवीय-पुकार

daiwiy pukar

श्रीनरेश मेहता

श्रीनरेश मेहता

दैवीय-पुकार

श्रीनरेश मेहता

कितना आश्चर्य है कि

देवता अहोरात्र मनुष्य की पुकारते हैं, कि—

आओ, धरती के कार्मिक मनुष्यो!

यहाँ आओ।

आकाशों की इस अपरिमेय ग्रहीय प्रशांतता

और नक्षत्रीय शून्यता में आओ

और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो।

कभी हमारी इन आकाशगंगाओं तक आकर देखो—

मनुष्य के बिना।

हमें भी इस कालहीन अनंतता में

कितना आदिम सखाहीन अकेलापन लगता है।

जिस प्रकार ब्रह्मांड का प्रकाश

धरती पाकर नानावर्णी धूप बनता है

उसी प्रकार तुम्हारे आकाशों में पक्षी बनकर उड़ने

नदियों का लालित्य बनकर चलने

और छोटे-छोटे दूर्वा-अक्षरों में पद लिखने के लिए

हमारा देवत्व भी कैसा विवश आकुल है।

आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ!

वैराट्य स्वयं कभी अभिव्यक्त नहीं होता

इसलिए हमारे माध्यम बनने के लिए आओ

और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो।

मिट्टी, प्रतिमा बनती ही तब है।

जब वह धरती पर आकाश का प्रतिनिधित्व करती है,

मनुष्य, देवता बनता ही तब है।

जब वह व्यक्ति का नहीं वैराट्य का प्रतीक होता है।

देखो, यह पृथिवी।

कभी अंधकार में डूबी कैसी उजाड़ थी

इंद्र और वरुण जैसे मेधावियों ने

इसे हिमाँधियों और अतिवृष्टियों से मुक्त किया,

आंगिरसों ने।

इसके ठिठुरते अंगों को ऊष्णता दी

और सूर्य ने इस पर चलकर

वन, पर्वत, नदियों और वनस्पतियों के

सृष्टि-श्लोक लिखे

और धरती

कैसे खिलखिलाते मुखवाली

कहीं माधवी-प्रिया

तो कहीं उदात्त अन्नपूर्णा हो गई।

इसी प्रकार हम भी तुम्हें

प्रकाश, सुगंध और भास्वर-वाणी के

अंगराग और अंगवस्त्रों से भूषित कर

मंत्र-देवता बना देना चाहते हैं।

इसलिए आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ!

यहाँ आओ

और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो।

आश्चर्य मत करो—

हमारे लिए दिन है रात्रि

देश है, काल

सृष्टि है, संहार

हम तो इस अपरिमेयता में केवल एक स्थिति हैं।

हम नित्य हैं।

हमारी कोई छाया नहीं होती

इसलिए काल भी हमें व्यतीत नहीं बना पाता।

इसीलिए देवता ही अहोरात्र मनुष्य को पुकार सकते हैं।

और वे ही

समस्त प्रहरों, आठो यामों में पुकार रहे हैं, कि—

आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ!

यहाँ आओ

और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो।

स्रोत :
  • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 102)
  • संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय
  • रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2015

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