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मजनूँ

majnun

प्रियंका दुबे

अन्य

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और अधिकप्रियंका दुबे

    मजनूँ होने

    और मजनूँ हो पाने की चाहना में

    उतना ही फ़र्क़ है जितना

    नींद और ख़्वाब में

    इसलिए तो

    हर मजनूँ में आशिक़ होता है

    लेकिन हर आशिक़ में मजनूँ नहीं

    क्योंकि मजनूँ कभी

    नौकरियाँ करने या पैसे कमाने

    वापस अपने शहरों को नहीं लौटा करते

    वह तो विरह को ख़ून में मिलाकर

    फिरते हैं दरबदर एकाकी

    और रोते हैं यूँ

    जैसे हँस रहे हों

    मिलन की हर प्रत्याशा के उस पार तड़पते

    मजनुओं के सीने में

    वस्ल की तलब भी बाक़ी नहीं बचती

    होती है तो सिर्फ़

    प्यार से प्यार में

    मर जाने की आकांक्षा

    तुम लिखोगे मजनूँ

    अपने आभासी गद्य में

    मैं मर जाऊँगी इक़ रोज़

    प्यार से प्यार में मिले

    विरह को

    जीते हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियंका दुबे
    • प्रकाशन : समालोचन

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