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शाल एक रेशमी

shaal ek reshmi

महमूद दरवेश

अन्य

अन्य

महमूद दरवेश

शाल एक रेशमी

महमूद दरवेश

और अधिकमहमूद दरवेश

    दरख़्त की शाख़ पर एक शॉल। लड़की कोई गुज़री होगी इधर से,

    या कि हवा, और टाँग गई शॉल अपना, दरख़्त पर।

    ये कोई ख़बर नहीं, आराम फ़रमाते एक शा'इर की नज़्म का मुखड़ा है।

    और वो अब इश्क़ में मुब्तला नहीं है,

    लिहाज़ा शुरू किया उसने उसे निहारना, थोड़े फ़ासले से, चरागाह के

    किसी ख़ूबसूरत नज़्ज़ारे के मानिंद।

    समो लिया ख़ुद को उस नज़्ज़ारे में : कद्दावर है भिंसा का दरख़्त,

    और शॉल रेशमी! साफ़ ज़ाहिर है कि लड़की गर्मी के महीनों में

    लड़के से मिला करती होगी, और वे यहाँ ख़ुश्क-ज़र्द घास पर

    बैठते होंगे। इसके ये भी मा'नी निकलते हैं कि वे ख़ुफ़िया शादी

    के लिए परिंदों को फुसलाया करते होंगे, क्योंकि इस पहाड़ी

    पर सामने तना खुला आसमान परिंदों के लिए लुभावना है

    लड़के ने लड़की से कहा होगा, “तुम मेरे पहलू में हो, तब भी

    मैं तुम्हारी हसरत से लबरेज़ हूँ, गोया तुम बहुत दूर हो मुझसे।”

    और लड़की ने लड़के से कहा होगा, मैं तुम्हें अपने आगोश

    में भींचे हूँ, जैसे मेरे उरोज, गो कि तुम बहुत दूर हो मुझसे।

    जवाब में लड़के ने लड़की से कहा होगा, “तुम्हारी नज़रों में

    पिघल कर मैं सरगम हो जाता हूँ। और लड़की ने लड़के से :

    मेरे घुटने पर तुम्हारा हाथ वक़्त को पसीने में तब्दील कर देता है।

    लिहाज़ा मलो, इतना मलो, कि मैं पिघल जाऊँ ।”

    शा'इर रेशमी शॉल का बयान करने में इस क़दर डूब जाता है, कि

    उसे इस हक़ीक़त का भी ख़याल नहीं आता, कि ये दरहक़ीक़त बादल

    हैं—सूरज डूबने के वक़्त दरख़्त की शाख़ों के बीच से होकर गुज़रते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 336)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक सुरेश सलिल, कैथराइन कोहैम
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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