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बाजीप्रभु देशपांडे

bajiprabhu deshpanDe

मैथिलीशरण गुप्त

अन्य

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मैथिलीशरण गुप्त

बाजीप्रभु देशपांडे

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    पन्हाल नामी गढ़ में सचेष्ट,

    विख्यातकर्मा जब थे शिवाजी।

    लेने पिता का बदला उन्हीं से,

    आया वहाँ फ़ाज़ल ख़ाँ ससैन्य॥

    वैरी चढ़े यद्यपि थे हज़ारों,

    हुए तो भी सफल प्रयत्न।

    होता रहा युद्ध कई महीने,

    सुयुक्ति से शक्ति सदैव हारी॥

    हुई कई बार विशेष हानि,

    हटे वैरी फिर भी वहाँ से।

    लगे शिवाजी तब सोचने यों—

    कैसे चलेगा अब काम ऐसे॥

    हो मुक्ति जैसे इस आपदा से,

    सोची उन्होंने तब और युक्ति।

    ले वीर बाँके कुछ एक रात,

    नि:शंक हो वे निकल वहाँ से॥

    घिरे हुए थे नृप रक्षकों से,

    उत्साह से थे वह किंतु आगे।

    सुयोग्य सेनापति धीर वीर,

    थे साथ बाजीप्रभु देशपांडे॥

    क्रोधांध होके सहसा इन्होंने,

    धावा किया सत्वर शत्रुओं पै।

    जैसे मृगों के गण में सरोष,

    क्षुधार्त पंचानन टूटते हैं॥

    होके सुकर्तव्य-विमूढ़ भीत,

    मारे गए शीघ्र अनेक वैरी।

    विशाल सेनार्णव तैर मानों,

    लिया इन्होंने पथ राँगना का॥

    जाता हुआ देख इन्हें सगर्व,

    पीछा किया तत्क्षण शत्रुओं ने।

    निस्तब्धता भंग हुई निशा की—

    “शिकार भागो, पकड़ो छोड़ो॥”

    विषाक्त बातें सुन वैरियों की,

    जौलों खड़े हों फिर के शिवाजी।

    तत्काल ही जान अनर्थ होता,

    विनीत बाजीप्रभु ने कहा यों—

    “हमें यहाँ रोक कटूक्तियों से,

    हैं चाहते शत्रु अभीष्ट-सिद्धि।

    करें शठों से शठता सदैव,

    नीति भूलो अपनी नरेश!

    मैं रोकता हूँ सब शत्रुओं को,

    बढ़ो यहाँ से तुम शीघ्र आगे।

    हे तात! मेरा कहना विचारो,

    रक्षा इसी में अब है हमारी॥

    बोले शिवाजी तब हो गंभीर—

    “आओ, मरेंगे सब साथ आज।

    तुम्हें यहाँ संकट में गिरा के,

    क्या प्राण-रक्षा अपनी करूँ मैं?”

    हो व्यग्र बाजीप्रभु शीघ्र बोले—

    “मेरे लिए सोच करें आप।

    उद्देश्य-रूपी मख में हमारे,

    अनेक साथी बलिदान होंगे॥

    अनेक बाजीप्रभु देश में हैं,

    है कि एक ही किंतु यहाँ शिवाजी।

    पूरा हुआ कार्य नहीं अभी है,

    क्या-क्या जानें करना तुम्हें है॥

    मौक़ा नहीं वाद-विवाद का है,

    हैं रहे शत्रु सवेग पीछे।

    जाओ, दुहाई तुमको शिवा की,

    हरे! महाराष्ट्र हो अनाथ॥”

    निदान लेके तब वीर आधे,

    विदा हुए व्याकुल हो शिवाजी।

    ससैन्य बाजीप्रभु वैरियों की,

    रहे प्रतीक्षा करके अदृश्य॥

    ज्यों ही विपक्षी निकले वहाँ से,

    वे क्रुद्ध हो टूट पड़े सवेग।

    होने लगा युद्ध अतीव घोर,

    सींची गई शोणित से धरित्री॥

    दो याम बीते लड़ते परंतु,

    सके वैरी बढ़ एक पाद।

    हुआ क्षतच्छिन्न शरीर सारा;

    हटे बाजीप्रभु किंतु पीछे॥

    जो आज प्राणों पर खेल के ये,

    रोक लेते सब शत्रुओं को।

    या तो शिवाजी बचते जीते,

    या हाथ आते निज शत्रुओं के॥

    आए शिवाजी जब रांगना में,

    दाग़ी गाईं पीवर पाँच तोपें।

    था क्षेम का सूचक भीमनाद,

    निश्चिंत बाजीप्रभु हो गए यों॥

    फैली मुख-श्री उनकी अपूर्व,

    किया उन्होंने प्रभु-धन्यवाद।

    निर्वाण के पूर्व यथा प्रदीप—

    वे तेज से पूर्ण हुए विशेष॥

    की स्वामिरक्षा मर के जिन्होंने,

    है धन्य बाजीप्रभु देशपांडे।

    अहो! महाराष्ट्र-लियोनिडास!

    है सर्वथा दुर्लभ मृत्यु ऐसी॥

    थे वीर ऐसे जिनके वरिष्ट,

    होते शिवाजी समर्थ कैसे?

    नवीन राष्ट्रस्थिति-योग्य कार्य,

    भला कहीं हो सकते अकेले?

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 168)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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