बहुत दिन बाद, प्रियतमा

bahut din baad, priyatma

हरिहर मिश्र

हरिहर मिश्र

बहुत दिन बाद, प्रियतमा

हरिहर मिश्र

तुम्हारे लावण्यवती केश-पाश में

काला रंग लगाना होगा अब—

कब रह गई यों ही

पंचमी या सप्तमी की चाँदनी में

सब आश करते समय

डुबो देने पूनम या अमावस के ज्वार में।

कब से रह गई ऐसे

कोटि ब्रह्मांड सुंदरी रेशमी साड़ी बदल

शुद्धिघर के फेंटा में

दीमक खाए संसार को

झाड़-झूड़ धूप देते समय भादों में

भूल गई,

सूखी डाल से बाड़ लगाई चारों ओर

बैंगनी फूल खिलने पर,

फुसफुसाहट तितलियों की

सुनाई दे रही।

शायद भूल जाऊँ अर्थ सारे

उन स्वरों का,

लिपिबद्ध मैंने अनजाने फेंक दिया

कदाकार पृथ्वी पर

ऐसे कोने में बंद कमरे में

जिसका ताला खोलने या

चाबी तलाशने की

मुझे ज़रा भी फ़ुरसत नहीं मिली।

कभी-कभी आई होगी उस घर

पर कोने के अँधेरे छू रही गरम हवा में

रह सका खिड़कियाँ सारी खोलने का मन कर

वरन उचित समझा खिसक जाऊँ

किसी तारे में सिगरेट सुलगा

धुंआ की मूर्ति संग नाचने कोहरे में

ढाँपकर क्षितिज को रंगीन पर्दे में

ख़ूब गोपन में,

अभिसार रचाया होगा देश-विदेश में।

आज धूप-छाँव, पत्तों की भीड़ में

तुम आती पाँव धो बेढंगे क़ायदे में

चांच-सी बैठती अकेली गीत में अपने

खोजती मुझे हर ख़ाली स्थान पर

कहीं नहीं पाती मेरे उत्साह के पगचिह्न

सहम कर छुप जाता हत्या कर जो है,

आवेग उच्छ्वास मेरा कवि नहीं,

और कोई मान लेता

पृथ्वी का सारा अवक्षेप।

निरुद्देश्य घूमती स्वप्न लिए

रूपहीन सत्ता मेरी

जबकि तुम्हारे मन का साँचा आदिम युग का

देखता रहे गढ़ने प्रतिमा उस देवता की

पिघलाकर मेरे

हाड़-मांस का आवरण जीवन-भर का।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 185)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : हरिहर मिश्र
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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