Font by Mehr Nastaliq Web

रूमानियत पर एक रूमानी बातचीत

एक रोज़ जब लगभग सन्नाटा पसरने को था, मैंने अपने साथ खड़े लेखक से पूछा, “आप इतनी रूमानियत अपनी रचनाओं में क्यों भरते हैं? क्या आपको लगता है कि इंसान अपने अकेलेपन में ऐसे सोचता होगा?”

हम रास्ते पर चल रहे थे, ठंड और सप्तपर्णी की महक का मिश्रण अजीब नशा उत्पन्न कर रहा था; मानो कस्तूरी की तलाश में मैं ख़ुद को खोज रहा होऊँ। वह अपने गिरेबान में झाँककर मुस्कुराते हुए कहते हैं, “बिल्कुल, आप पर जब अकेलापन हावी होता है, तभी आप झड़ते हुए पत्ते देखते हैं और उदासी आपके सीने पर चढ़ आती है।”

रास्ते पर एक आई.टी सेक्टर में काम करने वाले व्यक्ति को देखकर कहा, “लेकिन जिस व्यक्ति का सौंदर्यबोध अस्ल में इस ढंग का न हो तो? क्या पता उसने साहित्य न पढ़ा हो? या सिनेमा और कला से वैसा रागात्मक संबंध न हो?”

“पहली बात कला सिर्फ़ साहित्य और सिनेमा तक सीमित नहीं है। इंसान बचपन से ही जाने अनजाने में, अनेक तरीक़ों से कला से रूबरू होता है। तुम्हें रूमानियत से क्या दिक़्क़त है?”

“कि यह हमें यथार्थ से दूर करता है। इसके कारण व्यक्ति अस्ल संघर्षों से पलायन के रास्ते खोजता है।”

“दुख में पलायन क्या जीने की इच्छा को जीवित नहीं रखती? क्या वह व्यक्ति के पीछे की जिजीविषा को नहीं दिखाती? मैं सोचता हूँ—हर वह चीज़ जो व्यक्ति को आशा दे, भरपूर दुख में जिसके बदौलत वह थोड़े दिन और जिए वह दुनिया में रहनी चाहिए। और बहुत पुराने समय से यह है। दुखों के ऊहात्मक वर्णन में यह अक्सर मिल जाता है। आज इंसान पहले से अधिक अकेला और दुखी है। ऐसे में इसकी ज़रूरत और बढ़ जाती है।”

हम अब एक बेंच पर बैठे थे और आते-जाते लोगों को देख रहे थे। वे भी हमें देख रहे थे, शायद नहीं भी। मैं अभी पुरानी बात पर विचार कर रहा था और ई-रिक्शे पर दो प्रेमी जोड़े को जाते हुए देखता हूँ। उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी।

“लेकिन क्या इस रोमानियत के कारण वह ठहर नहीं जाता और अकर्मण्य नहीं हो जाता है? वह अपने ही सुख-दुख तक सीमित नहीं रह जाता है।” मैंने कहा।

“किसी के यहाँ कोई मरता है तो उसे शोक मनाने का अधिकार है। दूसरी बात इंसान की संवेदना का विस्तार उसके ज्ञान और विवेक के विस्तार से जुड़ा है। उसके लिए ज़रूरी है कि वह जीवित रहे और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की कोशिश करे। भूखे पेट जन कल्याण नहीं हो सकता।”

“और ख़ुशी में यह भाव क्यों रहता है?”

“तब हर्षित होने का अधिकार है।”

“और सामान्य स्थिति में?”

“तभी इंसान कार्यरत होता है‌। अति सबकी ख़राब ही है लेकिन रुमानियत जीवन का सुगंध है, उसे रहना चाहिए।”

“मैं इसे इतना आवश्यक नहीं मानता।”

“क्योंकि तुम दुख, क्रोध और चिढ़ से भरे हो। और इस चीज़ की ज़रूरत तुम्हें भी है। तुम कुछ खोज रहे हो‌।”

मैं चुप हो गया था। एक ठंड की परत मुझे जमा देने को आतुर थी। पास के नाले से जो कभी नदी थी, एक दुर्गंध उस बेंच को घेर चुकी थी।

उन्होंने मुझसे पूछा—“क्या खोज रहे हो?”

मैंने कुछ नहीं कहा और एक नाम मेरे मन के तट पर बार-बार आता—‘मुक्तिबोध’। लेकिन इसे भी रूमानियत के डर से नहीं कह पाया। मेरे लिए वह मात्र कवि नहीं बल्कि जीवन प्रक्रिया हैं। सोचने लगा कि अगर मैं कह दूँ तो क्या मेरे ऊपर भी रूमानियत चस्पा हो जाए?

“ख़ैर मुझे यह सब समझ नहीं आता कि यह है क्या।” मैंने अपना आख़िरी वाक्य कहा।

वह मुझे मुस्कुराकर देखते रहे। मुझे अब वह रक्तालोक-स्नात पुरुष दिखने लगे। मुझे डर लगने लगता है और मैं आगे बढ़ जाता हूँ।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियो

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के

बेला लेटेस्ट