रवींद्रनाथ का भग्न हृदय

विलायत में ही मैंने एक दूसरे काव्य की रचना प्रारंभ कर दी थी। विलायत से लौटते हुए रास्ते में भी उसकी रचना का कार्य चालू रहा। हिंदुस्तान में आने पर इस काव्य-रचना की समाप्ति हुई। प्रकाशित होते समय मैंने इस काव्य का नाम ‘भग्न हृदय’ रखा। लिखते समय मुझे मालूम हुआ कि यह रचना अच्छी हुई है और लेखक को अपनी कृति उत्तम प्रतीत हो तो इसमें आश्चर्य भी कुछ नहीं है। यह काव्य मुझे ही सुंदर प्रतीत नहीं हुआ, किंतु पाठकों ने भी इसकी प्रशंसा की। इसके प्रकाशित होने पर टिपरा के स्वर्गीय नरेश के दीवान साहब स्वतः मेरे पास आए और मुझसे कहा कि आपके इस ग्रंथ के संबंध में राजा साहब (टिपरा) ने यह संदेश भेजा है कि उन्हें आपका यह काव्य बहुत पसंद आया है। उन्होंने कहा है कि इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए थोड़ी है और भविष्य में लेखक बहुत प्रसिद्धि प्राप्त करेगा, ऐसा उन्हें विश्वास है। यह बात आज भी ज्यों की त्यों मुझे स्मरण है।

यह काव्य मैंने अपनी आयु के 18वें वर्ष में लिखा था। आगे जाकर अपनी आयु के 30वें वर्ष में इसी काव्य के संबंध में मैंने एक पत्र में जो कुछ लिखा, उसे यहाँ उद्धृत करना मुझे उचित प्रतीत होता है—

जब मैंने ‘भग्न हृदय’ नामक काव्य लिखना प्रारंभ किया, उस समय मेरी उम्र 18 वर्ष की थी। यह अवस्था न तो बाल्यावस्था ही मानी जाती है और न तरुण ही। यह इन दोनों अवस्थाओं का संधि-काल है। यह वय सत्य की प्रत्यक्ष किरणों से प्रकाशित नहीं रहती। इस अवस्था में सत्य का अस्तित्व प्रत्यक्ष न दिखलाई पड़कर, कहीं किसी जगह उसका प्रतिबिंब दिखलाई पड़ता है और शेष स्थान पर केवल धुँधली छायामात्र दिखती है। संधि-काल की छाया के समान इस अवस्था में कल्पनाएँ दूर तक फैली हुई, अस्पष्ट और वास्तविक जगत को काल्पनिक जगत के समान दिखलाने वाली रहती है।

विशेष आश्चर्य की बात यह है कि उस समय मैं ही केवल 18 का नहीं था, किंतु मुझे अपने आस-पास के प्रत्येक व्यक्ति 18 वर्ष के प्रतीत होते थे। हम सब एक ही आधारशून्य, स्वत्वरहित एवं काल्पनिक जगत में इधर-उधर भटक रहे थे; जहाँ कि अत्यधिक आनंद और दुख दोनों ही स्वप्न के आनंद और दुख की अपेक्षा भिन्न नहीं मालूम होते। दोनों की तुलना करने का प्रत्यक्ष कोई साधन नहीं था। इससे बड़ी बात की आवश्यकता छोटी बात से पूरी की जाती थी।

मेरी पंद्रह-सोलह वर्ष की अवस्था से लेकर बाईस-तेईस वर्ष तक की अवस्था का काल केवल अव्यवस्थित रीति से ही व्यतीत हुआ। पृथ्वी के बाल्यकाल में जल और भूमि एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न नहीं हुए थे। उस समय बालुकामय दल-दल वाले अरण्यों में कोचरविहीन वृक्षों में से बड़े-बड़े आकार के जलचर और थलचर प्राणी इधर-उधर संचार करते रहते थे। इसी तरह आत्मा की अस्पष्ट बाल्यावस्था के प्रमाणशून्य विलक्षण आकार-प्रकार के अप्रगल्भ मनोविकार, उक्त प्राणियों के समान आत्मा की मार्गरहित अटवी में दूर फैली हुई छाया में भटकते रहते हैं। इन मनोविकारों को न तो अपने आप का ज्ञान रहता है और अपने भटकने के कारणों का ही। वे केवल अज्ञान अथवा मूढ़ता से भटकते रहते हैं। अपने निजी कार्यों का परिचय न होने से अपने को छोड़कर दूसरी बातों का अनुकरण करने की उनकी (मनोविकारों की) सहज ही प्रवृत्ति होती है। इस अर्थशून्य ध्येयरहित और क्रियाशील अवस्था में अपने ध्येय से अपरिचित होने के कारण उसे सिद्ध करने में असमर्थ बनी हुई मेरी अविकसित शक्तियाँ बाहर निकलने के लिए एक-दूसरे से स्पर्धा करती थीं। इस अवस्था में प्रत्येक शक्ति ने अतिशयोक्ति के बल पर अपना प्रभुत्व मुझ पर जमाने का ज़ोर-शोर से प्रयत्न किया। 

दूध के दाँत निकलते समय बालक को ज्वर आया करता है। दाँतों के बाहर निकलकर अन्न पचाने के काम में सहायता देने वाली पीड़ा का कोई समर्थन नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अप्रगल्भ अवस्था के मनोविकार, बाह्य जगत से अपने वास्तविक संबंध का ज्ञान होने तक मन को कष्ट दिया करते हैं। उस अवस्था में मैंने स्वानुभव से जो बातें सीखीं; ये यद्यपि नैतिक पुस्तकों में भी मिल सकती हैं, परंतु इससे उनका मूल्य कम नहीं हो सकता। अपनी वासनाओं को अंदर ही अंदर बंद रखकर बाह्य जगत में उन्हें स्वच्छंदता से संचार न करने देने वाली बातें हमारे जीवन में विष फैलाती है। इसमें से स्वार्थ-बुद्धि भी एक है। यह हमारी इच्छाओं को मन के मुताबिक संचार नहीं करने देती, न उन्हें अपने वास्तविक ध्येय के नज़दीक जाने देती है। इसीलिए स्वार्थरूपी भिलावाँ फूट निकलता है और उससे असत्य, अप्रमाणिकता और सब प्रकार के अत्याचार रूपी घाव हो जाते हैं। इसके विपरीत जब हमारी वासनाओं को सत्कार्य करने की अमर्यादित स्वतंत्रता प्राप्त होती है, तब ये विकृति को दूर कर अपनी भूल स्थिति प्राप्त कर लेती हैं और यही उनका जीवन-ध्येय अथवा अस्तित्व की वास्तविक आनंददायक स्थिति है।

मेरे अपरिपक्व मन की ऊपर कही हुई स्थिति का उस समय के उदाहरणों एवं नीति-तत्त्वों ने पोषण किया था और आज भी उनका परिणाम मौजूद है। मैं जिस समय के संबंध में लिख रहा हूँ, उस पर दृष्टि फेंकने से मुझे यह बात ठीक प्रतीत होती है कि अँग्रेज़ी साहित्य ने हमारी प्रतिभा पोषण न कर उसे उद्योपित किया है। उन दिनों शेक्सपियर, मिल्टन और बायरन ये हमारे साहित्य की अधिष्ठात्री देवता बन रहे थे। हमारे मन को हिला देने वाला यदि इनमें कोई गुण था तो वह मनोविकारों का आधिक्य ही था। अँग्रेज़ों के सामाजिक व्यवहार में मनोविकारों की लगाम खींचकर रखते हैं। मनोविकार चाहे कितने भी प्रबल हों पर उनका बाह्य आविष्करण न होने देने की ओर पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। शायद इसीलिए अँग्रेज़ी वाङ्‌मय पर मनोविकारों का इतना अधिक प्रभाव है कि अँग्रेज़ी साहित्य का यह एक गुण ही बन गया है कि उसमें से अनंत जाज्वल्यमान मनोवृत्तियाँ अनिवार्य होकर भड़कतीं और उनमें से भयंकर ज्वालाएँ निकलने लगती हैं। मनोवृत्तियों का यह भयंकर क्षोभ ही अँग्रेज़ी साहित्य की आत्मा है। कम से कम हमारी तो यही धारणा थी और इसी दृष्टि से हमने इस साहित्य की ओर देखना सीखा था।  

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रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली [सस्ता साहित्य मंडल, प्रथम संस्करण : 2013] के 42वें खंड मेरी आत्मकथा से साभार।

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