पिता और मैं : कविता और माटी
अनिरुद्ध सागर
04 अक्तूबर 2024

मैं शुरू करना चाहता हूँ तब से—जब से मेरे पिता नवीन सागर ने मेरे आज को देख लिया था और शायद तब ही उन्होंने 27 सितंबर 2024 की शाम उनके नाम के स्टूडियो में ख़ुद पर होने वाले कविता पाठ को भी सुन लिया था। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने सब कुछ पहले ही तय कर दिया था। वह बहुत आसानी से भविष्य में देख पा रहे थे। कभी-कभी मुझे लगता है, जैसे वह उसी एक समय में एक साथ तीन कालों में जी रहे थे—भविष्य में, वर्तमान में और अतीत में; और इसलिए कहीं-न-कहीं वह हर काल में अपनी ही कविताओं से बराबर संसार में आते रहना पसंद करते हैं।
वह कला के सच्चे और वास्तविक मायनों में एक सच्चे कलाकार थे, कला-प्रेमी थे। कभी-कभी वह वर्तमान में होते हुए, रामकुमार के चित्रों में इतना भीतर चले जा रहे होते थे—जहाँ से लौटना संभव नहीं होता था और इस तरह वह उन चित्रों में ही अपना एक संसार रचते। शायद भविष्य या अतीत से जुड़ा हुआ संसार। कभी-कभी तो मुझे लगता है, जैसे वह रामकुमार के चित्रों में अब भी अपना एक संसार रच रहे हैं। वह आज भी उन चित्रों में या उन चित्रों के आस-पास ही कहीं हैं।
कुछ साल पहले जब दिल्ली जैसे शहर में मैंने और आरती ने पिता नवीन और माँ छाया के नाम से अपने माटी स्टूडियो की शुरुआत की, तब सोचा भी नहीं था कि कभी इस स्टूडियो में पापा की स्मृति में कविता-पाठ का आयोजन होगा।
हमारे मित्र प्रत्यूष पुष्कर और रिया रागिनी एक दिन स्टूडियो आए और उन्होंने बताया कि 'सदानीरा' के संपादक और कवि-लेखक अविनाश मिश्र और वे दोनों सोच रहे हैं, क्यों न आप दोनों के इस ‘नवीन छाया पॉटरी स्टूडियो’ में आपके पिता नवीन सागर की स्मृति में रचना-समारोह का आयोजन रखा जाए। उनका ऐसा बोलना ठीक जैसे मेरे अवचेतन मन में था—अनिश्चित काल से, जिसके बारे में मैंने कभी सोचा नहीं लेकिन कहीं-न-कहीं यह बात मेरे भीतर थी, बस मुझको ख़ुद भी यह पता नहीं था।
इससे सुंदर बात भला क्या हो सकती थी कि ‘नवीन छाया पॉटरी स्टूडियो’ में ही नवीन सागर की स्मृति में कविताओं का पाठ हो, कविता वहाँ भी गूँजेगी; जहाँ माटी का वास है। माटी और कविता। वाह! इससे ज़्यादा सुंदर और क्या हो सकता था। यह हमारे लिए, हमारे स्टूडियो के लिए और हमारे विद्यार्थियों के लिए ख़ुद को रचने का एक और माध्यम जैसा है। कविता में रचना, माटी में रचना...
...तो मैं यहाँ रिया, प्रत्यूष और अविनाश को शुक्रिया कहना चाहूँगा। उन्होंने हमारे स्टूडियो को पहले से और भी ज़्यादा ऊर्जावान बना दिया है। दो अलग-अलग लेकिन व्यवहार में एक ही जैसे—लचीले और लय में बहने वाले माध्यमों को मिलाकर, माटी में कविता—कविता में माटी! और साथ ही इस आयोजन को अपने शब्दों और नवीन सागर से जुड़ी बातों और उनके काम पर बातचीत करते हुए शम्पा शाह (मेरी कला गुरु) और रामकुमार तिवारी—जो पिता के गहरे मित्र और छोटे भाई समान हैं और मेरे प्यारे चाचा—को भी शुक्रिया कहना चाहूँगा।
पाँचों कवियों देवी प्रसाद मिश्र, शायक आलोक, सौरभ अनंत, अखिलेश सिंह और अंकिता शाम्भवी को भी शुक्रिया कहूँगा। आपकी कविताएँ अभी भी स्टूडियो में आपकी आवाज़ के साथ गूँज रही हैं। सभी श्रोतागणों को भी शुक्रिया। आप सभी की ऊर्जा भी कुछ रह गई है यहाँ।
“क्या मिट्टी के आस-पास मिट्टी ना होने का कोई माध्यम नहीं हो सकता”
इस पंक्ति को बीस साल की उम्र में समझना थोड़ा कठिन था, लेकिन बारम्बार पढ़कर महसूस किया कि मिट्टी के आस-पास मिट्टी ना होने का अगर कोई माध्यम है तो वह केवल कविता ही हो सकती है। तो अब कोशिश होगी कि मिट्टी के आस-पास मिट्टी ना होने का कोई माध्यम कविता हो और निरंतर हो और यह सिलसिला जारी रहे। इस प्रसंग के अंत में मेरे पिता की यह कविता :
मैं उनतीस नवंबर को पैदा हुआ था
उनतीस नवंबर को मर जाऊँगा
और उस द्वार घर जाऊँगा
जहाँ तेईस जनवरी में मेरी माँ ने जन्म लिया है
वह इतनी सांसारिक थीं
मोह था उन्हें दुनिया से
लोगों के लिए मरने-खटने की
उनकी जीवनी थी
कि स्वर्ग और नर्क उनके लिए नहीं थे
वह जिस दिन मरीं
मैं श्मशान की बेंच पर उनकी चिता की ओर पीठ किए
उनका जन्म देख रहा था
मरकर मुझे मिल जाएगी वह राह
जिस पर दौड़ता हुआ पहुँचूँगा
और अपनी माँ का छोटा भाई बनूँगा
मुझे उनकी पूरी जीवन-कथा का दुहराव देखना है
मुझे उनकी नन्ही गोद में से
धरती पर बार-बार लुढ़कना है
वह मुझे पहचान लेंगी फिर भूल जाएँगी
मैं उन्हें पहचान लूँगा फिर भूल जाऊँगा
वह भूल जाएँगी किसी परिवार में मुझे जन्म दिया था
और मेरी मृत्यु के भय में मेरे इर्द-गिर्द
धुँधली पड़ती चली गई थीं
दूर के शहर के अस्पताल में आँखें मूँदने से पहले
कॉरीडोर की झक्क रोशनी में अकेले खड़े किसी अजनबी में
मेरा भ्रम उनका देखा आख़िरी दृश्य था
मुझे पता है बुदबुदा कर मेरा नाम लिया था
और ईश्वर से मेरी अमरता माँगी थी
मैं उनतीस नवंबर को मर जाऊँगा
अमर उनके घर जाऊँगा।
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