फूल की थरिया से छिटकती झनकार की तरह थीं शारदा सिन्हा!
पंकज प्रखर
06 नवम्बर 2024

कहते हैं फूल की थरिया को लोहे की तीली से गर छेड़ दिया जाए तो जो झनकार निकलेगी वह शारदा सिन्हा की आवाज़ है। कोयल कभी बेसुरा हो सकती है लेकिन वह नहीं!
कातिक (कार्तिक) में नए धान का चिउड़ा महकता है। शारदा सिन्हा की आवाज़ खेत-खलिहानों के बीच उठती है और सुदूर सारे पुरबिहा कुलबुला जाते हैं। बहुत दुर्धर्ष दिनों में भी वे इसी आवाज़ के सहारे लौटते हैं।
कभी शमशेर ने कहा था कि हिंदी में त्रिलोचन और सॉनेट लगभग पर्याय हैं―ठीक उसी तरह लोक में छठ और शारदा पर्याय हैं और यह एक अजीब संयोग है कि उन्होंने छठ के पहले दिन शरीर छोड़ दिया।
भोजपुरी के पास जब अपनी सभ्यताओं को उँगली पर गिनने के दिन बचे हैं―ऐसे में वहीं थीं जहाँ हम बार-बार लौटते रहे। बहुत रिपीटीशन के बावजूद भी उन्होंने कभी उबाया नहीं। जब भी घर की ओर लौटना हुआ, वह हमेशा छूती रहीं। उनकी उपस्थिति हमारे परदेसी दिनों में हमारी माँओं की तरह थी; जो चावल-बीनते, सूप-झटकते―‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’― गाती रहीं।
गर्मी के दिनों में मटकोड़ से आती हिलती हुई आवाज़ में वहीं थीं। सगुन, हल्दी, चुमावन, ब्याह, और विदाई में वही थीं। वहीं थीं जिन्होंने बहनों की विदाई हमें पहली बार रुलाया―‘निमिया तले डोली रख दे मुसाफ़िर!’
नईहर की याद में किलसती गवने आईं दुलहिने जिनके लिए बाबा का घर दूभर हो गया, उनके समवेत स्वर को―बढ़ियाई भादों में नरखर काट बेड़िया बना नईहर जाने की धमकी बनाती वहीं थीं―जो कातिक में हमें गाँव जाने पर वापस लौटने नहीं देती थीं। हमारे जीवन-रंग का कौन-सा हिस्सा था जो उनकी आवाज़ से सुवासित नहीं रहा―बारहमासी फूल की तरह।
परदेसियों के इंतज़ार में छत पर कपड़ों की तरह सूखती स्त्रियों के विरह ने इसी आवाज़ में साँस लेना सीखा और आने का मनुहार कर ‘पनिया के जहाज़ से पलटनिया’ बुलाने का प्रेमातिरेक भी।
वह बहुत लहरती हुई आवाज़ रही जिसने बहने के लिए लोक को चुना―एकदम बेलौस! बावजूद इसके बॉलीवुडिया रंगीनियों के बीच दाम्पत्य प्रेम के सौंदर्य में भावुक करती सबसे ज़्यादा सुने जानी वाली आवाज़ भी वही थी―कहे तोसे सजना! तोहरी ई सजनिया...
राघोपुर सुपौल में जन्मी, बेगूसराय में ब्याही गईं शारदा सिन्हा जो ठाकुरबाड़ी में भजन गाने के लिए कभी सास से इजाज़त माँगने की मुन्तज़िर रहीं―लोक-जीवन का वह राग बन गईं जिनके बग़ैर कहीं कुछ नहीं सोहेगा। अब कोयल बिन बाग़ सचमुच नहीं सोहेगा? वह लोक जो सोहनी, रोपनी में बसता है, जहाँ दउरी में पनपियाव लिए पत्नियाँ प्रेमी के इंतज़ार में स्टेशन तक चली जाती हैं―उनके उत्साह में कोई और रंग नहीं सोहेगा। उनके विरह को कोई आवाज़ नहीं ही सोहेगी।
माथे पर बिंदी की जगह गोल टीका, चौड़ी पाढ़ की साड़ी पहने, मुँह में घुलते हुए पान के साथ हारमोनियम पर बैठी हुईं विदुषी शारदा सिन्हा―आवाज़ की दुनिया में वहाँ बैठी दिखती थीं, जहाँ से निर्झरिणी फूट पड़ती हैं। जहाँ से जीवन का उद्दाम संगीत बरसता है।
शारदा सिन्हा से लोक-उत्सव का कोई रंग अछूता नहीं रहा। उनकी आवाज़ में मैथिली महकती रही। जहाँ-जहाँ उन्होंने छुआ वह खनक उठा। विद्यापति से महेंद्र मिसिर तक, खलिहान से चरवाही तक ,ओसारे से लेकर आँगन बुहारने तक उनकी आवाज़ लोक-जीवन का उद्दाम संगीत है―जिनमें रचे-बसे लोग अपनी अभिव्यक्ति पाते रहेंगे।
अब जब भोजपुरी में कहीं एक पत्र छाँव भी नहीं दीखता, वह बरगद छतनार की तरह पसरी रहेंगीं, जहाँ जन छहाँते रहेंगे। कातिक (कार्तिक) में कहीं गूँजती आवाज़ पुरबिहों को किलसाती रहेगी। वे बार–बार लौटेंगे।
नवरात्रि की साँझ में यह आवाज़ महकती रहेगी। वह उसी हिलती आवाज़ में गाएँगी―‘जगदम्बा घरे दियना बारि अइनी हो...’
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
24 मार्च 2025
“असली पुरस्कार तो आप लोग हैं”
समादृत कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल 59वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है। वर्ष 1961 में इस पुरस्कार की स्थापना ह
09 मार्च 2025
रविवासरीय : 3.0 : ‘चारों ओर अब फूल ही फूल हैं, क्या गिनते हो दाग़ों को...’
• इधर एक वक़्त बाद विनोद कुमार शुक्ल [विकुशु] की तरफ़ लौटना हुआ। उनकी कविताओं के नवीनतम संग्रह ‘केवल जड़ें हैं’ और उन पर एकाग्र वृत्तचित्र ‘चार फूल हैं और दुनिया है’ से गुज़रना हुआ। गुज़रकर फिर लौटना हुआ।
26 मार्च 2025
प्रेम, लेखन, परिवार, मोह की 'एक कहानी यह भी'
साल 2006 में प्रकाशित ‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध आत्मकथा है, लेकिन मन्नू भंडारी इसे आत्मकथा नहीं मानती थीं। वह अपनी आत्मकथा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट तौर पर लिखती हैं—‘‘यह मेरी आत्मकथा
19 मार्च 2025
व्यंग्य : अश्लील है समय! समय है अश्लील!
कुछ रोज़ पूर्व एक सज्जन व्यक्ति को मैंने कहते सुना, “रणवीर अल्लाहबादिया और समय रैना अश्लील हैं, क्योंकि वे दोनों अगम्यगमन (इन्सेस्ट) अथवा कौटुंबिक व्यभिचार पर मज़ाक़ करते हैं।” यह कहने वाले व्यक्ति का
10 मार्च 2025
‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक
हुए कुछ रोज़ किसी मित्र ने एक फ़ेसबुक लिंक भेजा। किसने भेजा यह तक याद नहीं। लिंक खोलने पर एक लंबा आलेख था—‘गुनाहों का देवता’, धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और उसके चरित