कहानी : स्मृतियों की गर्म भाप में सीझता मन
गुंजन उपाध्याय पाठक
18 मार्च 2025

मुझे ऐसे गले लगाओ जैसे मैं कल मरने वाला हूँ, और कल मुझे ऐसे गले लगाओ जैसे मैं मृतकों में से वापस आया हूँ!
—निज़ार क़ब्बानी
“Who can forget the most amazing moment when we get face to face for the very first time.”
ग्रीटिंग कार्ड के ये शब्द अब उसके माथे पर छपे हुए हैं। वह बताता है कि वहाँ टेबल पर कुछ कॉपियाँ रखी हैं—उसे ले आओ। वह जाती है, वहाँ कॉपियों के साथ एक कार्ड भी रखा हुआ है, वह उठाती है सुनहरे उजले रंग का कार्ड और उस पर छपे शब्द। वह कुछ नहीं कहती—पता नहीं क्यों कुछ बूँदें उसकी आँखों से छलक पड़ती हैं। अति भावुकता में उसके शब्द गले में अटक जाते हैं। वह उसके पास जाकर चुप-सी खड़ी है। वह समझ गया है कि कार्ड पढ़ा जा चुका है और वह कुछ परेशान-सी है।
छुट्टियों के दौरान उसने देखा कि ऑफ़िस के डस्टबिन में अधजला-सा कार्ड पड़ा हुआ है। वह उसे न्यू ईयर के स्कूल कैलेंडर में लपेटकर, स्कूल बैग में रख लेती है।
रात में जब सब सो चुके थे तो उसने उस लपेटे हुए काग़ज़ के ऊपर लिखा—“A love without any scope.” और अंदर की राख को अलग झाड़कर बाक़ी बचे कार्ड को सँभाल कर रख लेती है। अगले दिन स्कूल असेंबली के बाद, वह उसे इक्लेयर्स का पूरा पैकेट देता है, वह ख़ुश है। उसने सबको एक्लेयर्स बाँटी, स्कूल के चपरासी तक को और घर आकर उस डब्बे को भी सँभाल कर रख दिया। तब वह नहीं जानती थी कि यही अधजले कार्ड और चॉकलेट के ख़ाली डब्बे जैसी उसकी ज़िंदगी उसका इंतज़ार कर रही है।
वह पहली बार नेरूदा और औलिया को पढ़ती है। बीते सालों के एक-एक दिन माथे में कील की तरह चुभते हैं। माथे का यह दर्द नियमित होता गया और पूरा हावी हो गया। स्मृतियों की गर्म भाप में सीझने के सिवाय कहीं कोई विकल्प नहीं है, मुक्ति का कहीं कोई रास्ता नहीं है।
फिर एक और बीते साल का बोझ, जबकि उसका क्या—जाने वाला जाता नहीं है और आने वाले की पीठ पर बैठा हुआ दिखता रहता है; और आने वाला पस्त क़दमों से जाने वाले के कंधो पर सवार होता है। कुछ ख़त्म नहीं होता, सब साथ रहता है। और शुरू जो शुरू होता है, तो शुरू से ख़त्म के साथ ही शुरू और ख़त्म वह शुरू के लिए कमर दर्द को ढोता हुआ होता है। नया कुछ भी नहीं, सब पुराना, और पुराना नए के गले को दबाए हुए और नया पुराने को घसीटते हुए। और ऐसा नहीं कि यह सब अब इस उम्र का असर है, यह तो तब से है, जब वह नया पुराना खेल खेलने से पहले समझ गए और जो समझे तभी से कुछ भी बात नहीं बनी अपनी। इसे ठंड का असर भी न समझा जाए। इसे लिखना इसीलिए पड़ा क्योंकि कुछ लोगों को ग़लत-फ़हमी हो गई—प्लान क्या है को लेकर।
उसके पास कोई प्लान नहीं है। हर दिन जागती है, सोती है और दिन-रात के गुज़र जाने पर सोचती है कि दिन कटा। बीते वर्षों का लेखा-जोखा नहीं है उसके पास। हाँ, अब ख़्वाबों की लहर रोकती-टोकती नहीं है।
यही दिसंबर था या यही जनवरी। कोहरे से ढका हुआ सारा शहर, वक़्त हाथ-पैर सिकोड़ कर चुप बैठा हुआ। मगर मुहब्बत अपनी पूरी शोख़ी के साथ उससे छेड़खानी करती, मुहब्बत का रंग था जैसा कि होता है। अलहदा छोड़ दिए जाने का अंदाज़ भी उतना ही ग़ज़ब।
प्रेम करने की सहजता या ज़रूरत नहीं होने पर भी कोई-कोई रिश्ते जुड़ ही जाते हैं, लेकिन एकांत से उनका कोई सरोकार नहीं होता। एकांत फिर भी भयावह ही होता है। वहाँ कोई नहीं का मतलब भी कोई नहीं ही था।
शांत पड़ी उसकी देह में सौ जल तरंगें छूटतीं और सब कुछ धुँधला-सा हो जाता। उन लम्हों का गवाह कोई नहीं था। भरम रूपहली मछलियों-सा चमकता था और हथेलियों से छूट जाया करता था।
सर्दियों के दिनों में कॉल आता—वह अकेला है और वह बहानों की फ़ेहरिस्त भुलाकर एकदम से तैयार हो जाती, जाने की सारी तैयारियों के बीच उसे ख़ुद आश्चर्य होता अभी तो वह नाराज़ थी, चिढ़ती रही थी उसकी प्राथमिकताओं से, फिर यह क्या कि उसने फोन पर दो शब्द कहे और वह सब छोड़छाड़ कर तैयार हो गई। उसने टिकट बुक किया और निकल गई। उसे पता था, भले जता नहीं पाता हो, लेकिन जिस मुहब्बत को आज तक सिर्फ़ टीवी फ़िल्मों में देखा था—वह उसकी मूर्ति था, वरना क्यों बताता कि उसकी पत्नी कितने दिनों के लिए बाहर गई है।
यह उसकी मुलाक़ात के असर में पता ही नहीं चलता, सफ़र कितना दूर तक चला या कि रुका। वह आँखें मूँदे आने वाले हर लम्हों को संभवतः जी चुकी होती थी, पहुँचने पर समय का कुछ पता नहीं चलता। हाँ, यह अलग बात थी कि अब वह रति भोग के लायक नहीं रह गया था। वह उससे उमर में बीस-पच्चीस साल बड़ा था। फिर भी इक गंध थी जो दोनों को बाँधती थी।
उसे याद आता, उसकी पहली मुलाक़ात भी ग़लत टाइम में सही वक़्त के साथ शुरू हुई थी। उसने उसे नाइन-फ़िफ़्टीन में बुलाया था और वह पूरे ठसक के साथ नाइन फ़िफ़्टी में पहुँची, और फिर भी शायद कुछ ग़लत-ग़लत ही जुड़ गया या फिर सही-ग़लत से परे कुछ जुड़ा रह गया। जब वह उससे पहली बार मिली थी, महज़ बारह-तेरह की उमर थी उसकी। उसे इस बात का अंदाज़ा तक नहीं था कि आने वाले दिनों में यह रिश्ता अजनबिय्यत के दरवाज़ों से आत्मीयता की गलियों तक पहुँचकर खो जाएगा।
एक हद दर्जे की रुसवाई होगी, उसके ग़लत होने को लेकर गवाही तय होगी। उसे न जाने कितनी ही बार रंडी कहकर सिर्फ़ इसीलिए पुकारा जाएगा कि उसे कोई अच्छा लगता है। और उस अच्छे लगने के संबंध में अभी देह शामिल भी नहीं।
मगर एक अजीब-सी ख़ुशी मिलती थी उसे देखकर (वह हर बार अपनी कुछ आदतों से उसे स्पेशल महसूस करवाता, यदा-कदा उसे डायरी, पेन या फिर नए ढंग के रोचक कहानियों की किताबें, ड्राइंग बुक्स देकर)। हालाँकि कई बार उसने रिक्तता को भी महसूस किया था और थोड़ा बहुत रो-धोकर भूल जाती।
दोनों उस रात बहस करते—किताबों पर, राजनीति पर, गीतों पर, रोज़मर्रा की घटनाओं पर और अचानक ही नज़र मिल जाती और दोनो एक संकोच से भर उठते। अगले दिन सुबह-सुबह उसे भागना पड़ता या भगाया जाता जल्दी-जल्दी। वह अपना सारा समान समेटती, ढंग से रो भी नहीं पाती, न जता पाती। भावनाओं को होल्ड पर रखकर यंत्रवत सब कुछ करना उसे खीझ से भर देता और अगली बार नहीं आने का मन बनाते हुए वह वहाँ से निकल आती।
रास्ते भर सोचती हुई कि क्या सच में कोई नहीं है जो उसे उसकी तरह चाहे! हर दिन यही बात उसे छीजती और अगली बार फोन आने पर वह फिर से चल पड़ती। या फिर इक-बारगी थककर उसने फोन ही नहीं उठाया और न जाने कितने दिनों तक वह नंबर उसके फोन पर चमकता रहा और एक दिन न जाने उसे क्या सूझा कि उसने उस नंबर को ब्लॉक कर दिया।
और एक अरसा बीत जाने पर उसे ऐसा लगता था कि जैसे उसने छोड़ा नहीं हो, उससे छुड़वा दिया गया हो। यह अहं प्रेम के बीच भी अपनी घुसपैठ बना लिया करता और एकांत पाते उसे एक ऐसे दलदल में घसीटता जिससे वह निकलना चाहकर भी नहीं निकल पाती। अब जबकि सब कुछ को बीते हुए बीस-पच्चीस साल हो चुके हैं और वह अब उस उमर में है जहाँ वह हुआ करता था—वह अक्सर कोई गीत, ग़ज़ल या कहानी का नाम सुनकर सोचती है, यह सब उसने उस उमर में उसकी लाइब्रेरी में पढ़ा था, उस कैसेट को उसके कलेक्शन से उठाया था।
आज जब उसको गुज़रे हुए बीस साल हो चुके हैं। वह नहीं जानती कि अपनी इग्नोरेंस के कारण उसे पश्चाताप करना चाहिए या फिर उन्ही लम्हों को दुबारा जीने की कोशिश।
वह सब कुछ सच में मुहब्बत था या महज छलावा? ये सर्दियों के दिन उसे वापिस उसी बचपने में लौटा ले जाते थे और वह वर्तमान के ख़ालीपन को, बेमेल अनुभूतियों से भरती रहती है।
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