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झाड़ियों का शाप

यह घटना नवंबर के आस-पास की है, जब सेमेस्टर का ख़ौफ़ हर विद्यार्थी पर तारी होता है। इन दिनों में हर अच्छा और गदहा विद्यार्थी आपको रट्टा मारते मिलेगा और बात अगर हॉस्टल में रहने वाले लड़कों की हो तो कहना ही क्या? यहाँ पढ़ाई—पढ़ने के लिए कम, देखा-देखी में ज़्यादा होती है और इसी की चपेट में मैं था। यूँ तो मेरा और पाठ्य पुस्तकों का छत्तीस का आँकड़ा है लेकिन मजबूरी थी कि नवंबर में ग़ालिब और मीर के नीचे दबी हुई पुस्तकों को बाहर निकाला जाए। मैं बीएचयू हॉस्टल के कमरे में पड़ोसी की मेज़ को हथियाए पढ़ रहा था और पड़ोसी गुटखा का आनंद लेकर कमरे से बाहर निकल रहा था। जिसके विषय में यह घटना लिखी जा रही है, वह यही हज़रत हैं। इन्हीं का नाम है—‘शांति स्वरूप भाटिया’। जिन्हें हम मित्र ‘लाठिया’ कहकर पुकारते हैं।

लाठिया साहब गुटखा खाकर कमरे से बाहर निकले और उनके निकलने के कुछ समय बाद साइकिल के गिरने की आवाज़ आई। मुझे लगा कि शायद कोई साइकिल गिरी है लेकिन लगभग एक मिनट के बाद लाठिया साहब कराहते हुए कमरे में दाख़िल हुए और बेड पर टाँग को पकड़े-पकड़े गिर पड़े। लाठिया साहब अनवरत ‘ऊह-आह’ की मादक दर्दीली ध्वनि निकाले जा रहे थे, जिसे सुनकर मुर्दे की भी हँसी छूट सकती थी। मानव की प्रकृति भी दूसरों के दर्द पर हँसने की ही तो है, सो मैं भी अपनी हँसी को दबाता हुआ अपने दूसरे रूम-पार्टनर अशोक की ओर लपक के बोला, “अशोक जी देखिए लाठिया को क्या हुआ?” 

अशोक अपनी किताब बंद करके अपने बेड से कूद कर लाठिया के बेड के पास आए, जहाँ मैं भी खड़ा था। अशोक ने लाठिया का हाथ टाँग पर से हटाकर चोट का निरीक्षण किया और बोले, “अरे! शांति स्वरूप जी यह कैसे हुआ?” लाठिया और ज़ोर से कराहते हुए बोला... “आह! साइकिल की माँ का... उसकी बहन का... लौंडे हरामी साले। साइकिल यही कमरे के आगे खड़ी कर देते हैं, मेरा पैर फँस गया... और मैं सीढ़ियों पर गिर गया।”

मैं बात को काटते हुआ बोला, “इन्हें जल्दी हेल्थ सेंटर ले चलिए।”

अशोक बोले, “लेकिन आज तो संडे है। हेल्थ सेंटर तो बंद होगा।”

मैंने फिर बात में बात जोड़ते हुए कहा, “अच्छा, तब इमरजेंसी ले चलिए।”

“शांति जी, आपका हेल्थ कार्ड कहाँ है?”

(बीएचयू में हर छात्र को एक हेल्थ कार्ड दिया गया है, जिसको दिखा कर छात्र अपना मुफ़्त में इलाज करवा सकता है। यह हेल्थ कार्ड ‘सर सुंदरलाल मेडिकल कॉलेज’ और ‘ट्रॉमा सेंटर बीएचयू’ में भी मान्य है।)

शांति स्वरूप—“नहीं, मैं नहीं जाऊँगा।”

अशोक—“नहीं चलिए, हो सकता है फ़्रैक्चर हो गया हो? हड्डी की चोट है।”

इधर हम तीनों ने कमरे को सिर पर उठा रखा था, उधर हमारे चौथे रूम पार्टनर अपने टैबलेट में बेन-टन कार्टून देख रहे थे। अशोक ने ईयरफ़ोन निकालते हुए बुद्ध को उठाया।

(अशोक जी बुद्ध जी से) “बुद्ध जी, देखिए शांति स्वरूप को चोट लग गई है।”

बुद्ध—“अरे! कहाँ?” (चोट देखकर)

“इन्हें जल्दी गाड़ी से प्रणव जी इमरजेंसी ले चलिए। मैं पीछे साइकिल से आ रहा हूँ।”

हेल्थ कार्ड पैंट में खोंसते हुए मैं लाठिया को गाड़ी तक ले आया। मैं, मेरे पीछे लाठिया और उनके पीछे अशोक मोटरसाइकिल पर बैठ कर चल दिए और इधर लाठिया का वो चिल्लाने वाला कार्यक्रम जारी रहा।

मैं—“अच्छा, शांति जी, आप बाहर सीढ़ियों के पास करने क्या गए थे?”

शांति—“मूतने।”

मैं—“सामने कहाँ? वहाँ तो टॉयलेट नहीं है, वहाँ तो झाड़ियाँ हैं। लगता है आपको झाड़ियों का शाप लगा है। आप रोज़ वहीं आजकल मूत रहे हैं।”

अशोक—“तब मूतने से पहले चोट लगी या बाद में?”

लाठिया—“आह... पहले।”

मैं—“यानी अभी आप मूत नहीं पाए हैं?”

लाठिया—“ऊँ हूँ।”

सर सुंदरलाल अब तक आ चुका था। हम और अशोक लाठिया को सहारा देते हुए अंदर ले गए। अंदर हेल्थ कार्ड दिखाते ही डॉक्टर ने ऐसे रिएक्ट किया मानो भगवान आ गए हों।

डॉक्टर—“अरे! बेटा क्या हुआ?”

मैंने उत्तर देते हुए घटित घटना बताई। डॉक्टर साहब ने तुरत पट्टी करवा कर ट्रॉमा सेंटर रेफ़र कर दिया।

हम सुंदरलाल के बाहर निकले ही थे कि बुद्ध भी आ गए। हम लोग लाठिया को लेकर एम्बुलेंस के पास पहुँचे।

मैंने ड्राइवर से कहा—“ट्रॉमा सेंटर चलना है।”

ड्राइवर के साथ वाले ने कहा—“आप लोग कौन?”

हमने झट से हेल्थ कार्ड दिखाया—“अजी हम लोग बीएचयू के स्टूडेंट हैं।”

एम्बुलेंस वाले ने तुरत लाठिया को स्ट्रेचर पर लादा और फट से चल दिया।

हम और बुद्ध मोटरसाइकिल पर हो लिए और अशोक, लाठिया के साथ एम्बुलेंस पर। वहाँ पहुँचते ही लाठिया बोला, “ऐसा है व्हीलचेयर लाओ और हमें उस पर बैठा लो।”

मैं दौड़ते हुए अंदर जाकर व्हीलचेयर ले आया और लाठिया को बैठाकर धकियाते हुए चल दिया। लाठिया की चोट अब ठंडी पड़ चुकी थी। लाठिया अब पूरे फ़ॉर्म में आ चुका था। धकियाते हुए ‘रेड ज़ोन एरिया’ में लाठिया को लाया गया। रेड ज़ोन एरिया में अत्यधिक टूटे-फूटे लोगों को लाया जाता है। डॉक्टर को चोट दिखाई गई। आजकल के डॉक्टर देखते कम, टेस्ट पहले करवाते हैं। वही हुआ। डॉक्टर बोले, “जाओ एक्स-रे करवाकर लाओ।”

हम फिर से लाठिया को धकियाते हुए एक्स-रे हॉल तक पहुँचे। लाठिया बीच में मुस्कुराते हुए बोला, “एक ठो फोटो त लै ला हमार।”

मैंने बीच में रोक कर लाठिया के कई पोज़ में कई फ़ोटो लिए, जिसे व्हाट्सएप पर स्टेटस रूप में लगाया गया।

एक्स-रे पंद्रह मिनट में मिल गया और वापस डॉक्टर को एक्स-रे दिखाया गया।

डॉक्टर—“कोई डरने की बात नहीं, बस मामूली चोट है। जाइए, ये दवाइयाँ ले लीजिए और पट्टी करवा लीजिए।”

अशोक और बुद्ध दवा लेने चले गए, इधर हम लाठिया के साथ रह गए। लाठिया बोला, “ऐसा है, हम चाय पिएँगे।”

मैंने कहा, “चलो अभी पिलाई जाएगी।”

बोले, “नहीं, अभी पिएँगे।”

हमने अशोक जी को फ़ोन किया पर फ़ोन नहीं उठा, सो चाय का प्लान कैंसल हुआ।

पट्टी करवाकर पुनः लाठिया को वापस एम्बुलेंस में बिठाकर हॉस्टल लाया गया, जहाँ उतर कर उन्होंने विस्तार से मूत्र विसर्जन किया।

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