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जातियों में जकड़े भारतीय समाज का अनदेखा सच

प्रत्येक समाज और व्यक्ति के अपने सच होते हैं। ये सच किसी-न-किसी माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। किताबें किसी व्यक्ति या समाज के अनदेखे सच की अभिव्यक्ति का अनूठा माध्यम हैं। एक ऐसी ही पुस्तक है—महाब्राह्मण। यह पुस्तक पाठक को भारतीय समाज की एक ऐसी दुनिया में ले जाती है—जहाँ अपमान, पीड़ा के साथ वह सब कुछ है, जिसे मानवीय नहीं कहा जा सकता। इस उपन्यास के साथ हम एक यात्रा करते हैं। इस यात्रा में हमारे आस-पास के समाज का वह सच दिखलाया जाता है, जिससे हमारा समाज मुँह फेर चुका है।

यह पुस्तक उपन्यास के मुख्य पात्र त्रिभुवन नारायण मिश्र की नोटबुक से शुरू होती है। यह नोटबुक हमें जातियों में जकड़े भारतीय समाज के अनदेखे सच की तरफ़ ले जाती है। पुस्तक के माध्यम से सबसे पहले हम काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कैंपस में पहुँचते हैं। यहाँ विश्वविद्यालय के हॉस्टल और इसके आस-पास की डेलीगेसी में ज़िंदगी से जद्दोजहद करते हुए अभाव में पल रहे सपनों से साक्षात्कार होता है। पुस्तक विश्वविद्यालय में व्याप्त जातिवाद, परिवारवाद, गुटबाज़ी, भेदभाव, भ्रष्टाचार की परत को क्रमशः सामने रखती जाती है। जाति का ज़हर और जातियों में ही उपजाति के आधार पर भेदभाव और अपमान के यथार्थ को यह पुस्तक निर्दयता से सामने रखती है। नायक त्रिभुवन नारायण मिश्र के माध्यम से यह भी स्पष्ट होता है कि शिक्षण संस्थान और शिक्षक, यदि योग्यता को महत्त्व दें तो संस्थान कैसे विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को आकार देते हैं।

“किताबें पढ़ना हमेशा से मेरी कमज़ोरी रही है और किताबें बड़ी मुश्किल से मुझे मिल पाती थी”—उपन्यास के मुख्य पात्र द्वारा कहा गया यह कथन; जहाँ निर्मित हो रहे समाज पर प्रश्न चिह्न लगाता है, वहीं यह कथन कि “स्वेटर पहनने की विलासिता का बोझ मैं नहीं उठा सकता।” समाज में संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण पर भी सवाल उठाता है। समाज द्वारा निर्मित जाति-व्यवस्था में उच्च जाति कहे जाने वाले ब्राह्मण समाज से आने के बावजूद उपजाति महाब्राह्मण निर्धारित होने की वजह से त्रिभुवन नारायण मिश्र को अंतिम साँस तक लड़ना पड़ता है। नायक एक विशेष उपजाति—महापात्र या महाब्राह्मण में जन्म लेने के कारण इसके कलंक को जीवनभर ढोता है और अंततः यही जाति का अभिशाप उसकी अंतिम साँस का कारण भी बनता है।

यह पुस्तक उद्घाटित करती है कि हमारे समाज में विद्यमान करुणा और स्नेह कितना सतही है। उपन्यास आगे बढ़ते हुए यह भी स्थापित करता है कि जहाँ इस समाज में भेदभाव, छुआछूत और अपमानजनक व्यवहार करने वाले लोग हैं, वहीं संवेदना से युक्त ऐसे लोग भी हैं—जो किसी का सहयोग सिर्फ़ इंसान और इंसानियत की वजह से करते हैं। उपन्यास के सहयोगी पात्र घुरहू यादव और राकेश पांडेय की संवेदना इसके गवाह बनते हैं। यह उपन्यास पाठक को शहर के जीवन के समानांतर गाँव के जीवन से भी रूबरू कराता चलता है। इस उपन्यास में भारतीय समाज के गाँव की यथार्थ स्थिति, अशिक्षा, जातिगत भेदभाव, कटुता, वैमनस्य, शोषण, हिंसा, नशाख़ोरी,  राजनीति, पाखंड के साथ–साथ गाँव की लोगों की मजबूरियाँ और बेबसी सजीव हो उठती हैं। उपन्यास नायक की माई के माध्यम से भारतीय समाज में महिलाओं की भयावह स्थिति को दर्ज करने वाला महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है।

जीवन किसी सीधी रेखा में नहीं चलता है। यह उपन्यास इसी तरह नायक की ज़िंदगी के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर आगे बढ़ता है। चंदौली के गाँव से आया हुआ एक अबोध और मेधावी लड़का कैसे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर से सिर्फ़ उपजाति की वजह से अपमानित होकर पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर ज़िंदगी जिधर भी ले जाए उसके साथ चलने को तैयार हो जाता है और ज़िंदगी त्रिभुवन नारायण मिश्र को पहुँचाती है—अधूरे सपनों के शहर इलाहाबाद। इलाहाबाद में नवीन मूल्यों को जीने वाले राकेश पांडे नायक के सारथी बनते हैं और दोनों मिलकर सफलता की एक नई इबारत लिखते हैं। ज़िंदगी सिर्फ़ सफल हो जाने से ही सार्थक नहीं हो पाती है, उपन्यास यह बताता है कि भारत की जाति व्यवस्था सफल ज़िंदगी को भी निरर्थक और सारहीन बना देती है।

गर्भ से ही माई के सपनों का पीछा करते हुए त्रिभुवन नारायण मिश्र जब सफल होता है तो ज़िंदगी वहीं लाकर छोड़ती है, जहाँ से उपजाति की वजह से अपमान और अनादर की शुरुआत हुई थी। पद से ऊपर उठ जाने के बावजूद यदि समाज द्वारा निर्मित जाति या उपजाति से आप निम्न हैं तो अपमान और तिरस्कार आपका पीछा नहीं छोड़ता। भारतीय पुलिस सेवा में चयनित होने के बाद भी जाति में ऊपर और अपनी जाति में निम्न होने का दंश नायक को अनवरत झेलना पड़ता है। समाज में सफलता पाने के पश्चात जब आप जाति से वर्ग की तरफ़ उन्मुख होते हैं तो ज़िंदगी और समाज की नई सच्चाई पता चलती है; कि कैसे अलग-अलग वर्गों में बँटा यह समाज कैसे संसाधनों से लैस है और संसाधनों की तरह ही इंसान का भी उपयोग कर लेने को आतुर है।

नायक त्रिभुवन नारायण मिश्र का विवाह अपने से ओहदे और जाति में ही ऊपर एक बड़े पुलिस अधिकारी की बिटिया मृणालिनी से होता है। जहाँ नायक की पृष्ठभूमि एक ऐसे समाज की है, जिसके बारे में मुख्य धारा का समाज पूरी तरीक़े से अनभिज्ञ है। वहीं मृणालिनी की परवरिश एक ऐसे परिवेश में हुई है, जहाँ ऐब को भी ख़ूबी मान लिया जाता है। नायक के अथक प्रयास के बावजूद इस बेमेल विवाह का बेहद दुःखद अंत होता है। अंततः जातियों में जकड़ा भारतीय समाज हर रोज़ निर्दोष ज़िंदगियों को लील लेने की कहानियों के साथ नायक के असमय दर्दनाक अंत की पटकथा लिखता है।

यह उपन्यास भारतीय समाज की स्याह सच्चाई को दिखाने के साथ-साथ ज़िंदगी में अभाव, पीड़ा, अपमान, अस्पृश्यता, षड्यंत्र, सहयोग, संवेदनशीलता, सफलता की कहानी कहते हुए एक दुखद और पीड़ादायक ज़िंदगी के अंत से हमारा साक्षात्कार कराता है और हमारे समाज के समक्ष एक प्रश्नों की शृंखला छोड़ जाता है, जिनका जवाब अभी दिया जाना बाक़ी है।

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