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बल के बारे में

श्रम काग़ज़ है। कर्म हस्ताक्षर। व्यक्ति को अपना काम करना चाहिए। मेहनत से। ईमानदारी से। समर्पण से। सजगता के साथ और अद्यतन कर्मठता से। लेकिन कर्म करने से पहले चुनाव करना ही चाहिए कि कौन-सा काम करने योग्य है। अकरणीय करना मनुष्य का काम नहीं।

बीते समय को वापस नहीं लाया जा सकता। पुराने समय के काम आज नहीं किए जा सकते। आज के काम कर सकने लायक़ होने की शिक्षा ही शिक्षा है। शिक्षा, भेदभाव और वैमनस्य से दूर रखने के लिए होती है। जो शिक्षा युद्ध सिखाए, वह शांति की दुश्मन है। 

दक्षता वह है जो आज से आगे ले जाने के लिए होती है। पीछे की ओर सभ्यताएँ नहीं जातीं। स्मृति आगे जाने के लिए होती है। इतिहास सुधारने के लिए नहीं होता, आगे बढ़ने के लिए होता है। आँखें आगे होती हैं, मस्तिष्क पीछे। जो शासक इतिहास को घसीटकर सुख की नींद सोते हैं, वे विनाश में जागते हैं। 

जो करता है, वही आगे जाता है। श्रेष्ठ आगे ले जाते हैं। लुटेरे पीछे ले जा सकते हैं—लूटने के लिए। लूट, कभी भी सामाजिक उपकार नहीं हो सकती। लूट से दया और दान नहीं उपज सकते।

अपने काम पर पूरा ध्यान, लगन और नियमितता न होने से ताक़तवर धूर्तताएँ, सत्ताएँ दूसरे-दूसरे कामों में लगाकर किसी को भी अयोग्यता में धकेल देने में उनका अवदान हड़पने में कामयाब हो जाती हैं।

तब क्या होता है? महत्त्वाकांक्षी अयोग्य प्रतिभाशाली की जगह ले लेते हैं। आरोपित धारणाएँ प्रतिभाओं को तोड़ देती हैं और हम स्वयं को मानने के लिए मजबूर होते हैं—स्वतः नॉट सूटेबल यानी सचमुच ही अनुपयुक्त।

सभ्यता के विकास के साथ-साथ यही धूर्त प्रविधि विजेता प्रविधि है कि जिसका हक़ छीना गया, जिस पर अन्याय हुआ, जिसका दमन किया गया... वह स्वयं माने कि ग़लती मेरी ही है। मैं हक़दार नहीं।

रास्ता एक ही है, अपना काम करें। अहिंसक काम संबंधी दक्षताएँ हासिल करें। सभी को स्वतः आश्वस्त होने दें—मेरा काम ही मेरा सहयोग, प्रतिदान और योगदान है। मेरा काम ही मेरी मैत्री, कृतज्ञता और हर प्रकार के ऋण से मुक्ति है।

हस्ताक्षर भले स्याही से होते हों, लेकिन कर्म अस्ल हस्ताक्षर है। उद्देश्य होना चाहिए, मेरा काम मेरा वक्तव्य है।  

हस्ताक्षर और मुद्रा मनुष्यता और शक्ति-विषयक सबसे बड़ी खोज हैं। हस्ताक्षर बल भी है और प्रेम भी। मुद्रा धन भी है, प्रदेय भी। हस्ताक्षर शैक्षणिक प्रतीक है। मुद्रा राजनीतिक चिह्न है।

विद्या-बल वह बल है; जिससे आस-पास सभी उत्साह, सुरक्षा और अभय महसूस करते हैं। जो बल किसी को डराए, असुरक्षित रखे, मनुष्य के सद्भाव, बंधुत्व में कमी करे उसकी आंतरिक क्षमताओं में ह्रास लाए; वह विद्या-बल नहीं हो सकता। उसे पशु-बल ही कहेंगे। ऐसे बल का क्या काम? ऐसे बल की जगह नहीं होनी चाहिए।

आत्म-बल सब बलों में श्रेष्ठ है। विद्या-बल प्रकृति और समाज-देश के कल्याण के लिए होता है। जब कोई मनुष्य आत्म-बल से बड़ी से बड़ी ताक़त के सम्मुख भी सत्य के साथ अहिंसक खड़ा हो जाता है, तो वह मनुष्यता की ताक़त होती है। उसके सम्मुख धन-बल, शस्त्र-बल, कूट-बल, बाहुबल पशु-बल सब बल हार जाते हैं। 

यही तो सर्वोच्च साहस और बल होता है कि कोई निहत्था और अहिंसक बड़ी से बड़ी ताक़त के सम्मुख सत्य और अच्छाई के लिए आ डटे। करुणा जो शक्ति भरती है, वह अपराजेय होती है।

बुद्ध और महात्मा गांधी के भेष में भारत के आत्म-बल को पूरी दुनिया देख चुकी है। गांधी जी हमेशा कहते थे, ‘‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’’ सदियाँ भी नहीं भुला पाएँगी कि इस महात्मा ने अपने पूरे जीवन को ही सत्य, अहिंसा का कर्म बना लिया था।

बड़े से बड़े हत्यारे भी सत्य, अहिंसा, सद्विचार और तद्जन्य कर्मों को मिटा नहीं पाते। श्रम मनुष्य का पहला और अंतिम शरण्य एवं सिद्धि है। कर्म श्रेष्ठतम सहायक। कर्महीन ही कर्मकांड और पाखंड में पड़ते हैं।

तुलसीदास कह गए हैं :

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
जो जस करहि सो तस फल चाखा

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