इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो-2
गोविंद निषाद
22 अप्रैल 2025

पहली कड़ी से आगे...
इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था। दोपहर हो गई थी। बिस्तर मेरे भार से दबा हुआ था। मुझे उसे दबाएँ रखने की आज की मियाद पूरी हो गई थी। वह बिस्तर ओवरटाइम काम कर रहा था। जब उसे लगा कि मैं अलसाया हुआ निठल्ला यहाँ पड़ा रहूँगा, उठूँगा नहीं; तब उसने कहना ज़रूरी समझा। हालाँकि वह डर भी रहा था कि मालिक को कैसे कहें कि उठ जाइए। बिस्तर तो मेरा करिंदा है, मैं मालिक। करिंदे की हिम्मत कैसे हो सकती है, जो मालिक को नज़र उठाकर कुछ कहने की जुर्रत करे।
किसी तरह उसने हिम्मत बटोरी और नज़रें नीचे किए हुए मुझसे कहा, उठ जाइए महाराज, इलाहाबाद अब प्रयागराज हो गया है। दिन भर यहाँ सोये ही रहेंगे कि हमें भी आराम करने देंगे।
आराम, तुम तो दिन भर आराम ही करते हो। मैं भड़क गया। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे यह कहने कि मुझे आराम करना है। अरे तुम्हारा जन्म ही हमारी सेवा के लिए हुआ है। तुम निरहुआ थोड़े हो जो विधि का विधान बदलने चले हो। तुम्हें याद है न कि तुम्हारे एक पुरखे ने यही हिम्मत की थी कहने की और उसका क्या हश्र हुआ था। तुमने भी तो सुना होगा न कि बिस्तर को कुएँ में उल्टा लटका दिया था, तब वह कैसे चिल्ला रहा था कि साहेब माफ़ कर दीजिए...।
तुम तो उससे भी आगे निकल गए। तुम्हारी हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि मुझसे कह रहे हो कि मैं बिस्तर से उठ जाऊँ। मुझे आदेश दे रहे हो। अरे अब वो वाला ज़माना गया जब तुम बात-बात पर थाने चला जाया करते थे। जाने को तो तुम अब भी जा सकते हो, लेकिन होगा कुछ नहीं, सिवाय वहाँ से भी कुत्तों की तरह भगा दिए जाओगे।
सिरहाने रखी इतिहास की किताब मुझे उलाहना दे रही थी कि जब पढ़ना नहीं था तो मुझे लाया ही क्यों! उठता हूँ। मुझे क्या पता था कि इतिहास की उस किताब को बिस्तर रोज पढ़ता था। उसने सिर्फ़ एक हफ़्ते में इतिहास-लेखन से लेकर आधुनिक इतिहास तक का सब कुछ पढ़ डाला था। वह उस प्रतिरोधी परंपरा और प्रति संस्कृति से भी वाक़िफ हो गया था। पता नहीं मुझे कहाँ से सूझा कि मैंने अंतोनियो ग्राम्शी और अंबेडकर दोनों की किताबें महीनों पहले वहाँ रख दी थीं। मुझे चिंता हुई कि वह तो उन्हें पहले ही चट कर गया होगा। अब मैं और चिंतित था कि ज़रूर इसमें एक चेतना बोध का निर्माण हो गया है। उसे ज्ञात हो चुका है कि उसके पुरखे कैसे जीवन की त्रासदपूर्ण स्थितियों से गुज़रे हैं।
“मानवजाति का इतिहास रहा है कि उसने हमेशा बिस्तर को दबाया है।” यह बात वह बार-बार बुदबुदा रहा था। मैंने उससे गुर्राते हुए कहा कि तुम्हें किताबों से लगता है कि समाज में क्रांति हो जाएगी। अरे वो किताब भी एक दिन हम उठाकर पानी में फेंक देंगे, जैसे तुम्हारे एक साथी इलाहाबाद को बढ़ियाई गंगा में फेंक दिया था।
मैं समझ गया था कि अगर अब मैंने नहीं सँभाला तो स्थिति गंभीर हो जाएगी। यही समय है कि अंकुरित होते पौधें को मसल दो। मैंने धमकी दी कि आगे से अगर उसने मुझे आदेशित करने या मेरे आदेश की अवहेलना करने की कोशिश की तो उसके इतने चीथड़े करूँगा कि स्वाहा होने में तनिक भी समय नहीं लगेगा। मैं जब तक मन करेगा, सोऊँगा। तुम मुझे बीच में टोकने की गुस्ताख़ी कभी मत करना। क्या समझे! अब इलाहाबाद, प्रयागराज हो गया है। मैं दोपहर तक सोऊँगा। घोड़े बेचकर सोऊँगा। देस बेचकर सोऊँगा। तुम्हें क्या दिक़्क़त?
जिस नाम को बचपन से तुम दुहराते रहे हो। जो तुम्हारी नस-नस में लहू बनकर बह रहा है। अब तुम उसे एक झटके में उसे भूल जाओ। जैसे भी हो भूल जाओ। वह सकपकाते हुए बोला कि गुस्ताख़ी माफ़ कीजिएगा साहेब! अब से आप जो कहेंगे मैं वहीं करूँगा। आप दिन-रात सोए रहिए। बस यह इलाहाबाद का लफ़्ज़ मुझसे तो न छीनिए। हाँ, एक बात मैं और कहना चाहता हूँ कि मुझे कभी-कभी धुल भी दिया कीजिए। देखते नहीं कि उसमें से कितनी किसिम-किसिम की बदबू आती है—बिना नसबंदी वाले बकरे जैसी बदबू, जो दूर से ही गंधाता है। ऐसा लगता है कि आपके बिस्तर में एक बकरा रहता है। और हाँ वह धब्बा तो कम-से-कम मिटा ही दीजिए जो आपने अपनी नसें शिथिल करने के उपक्रम में कलात्मक रूप से जगह-जगह बिंदुओं में उकेरी हैं।
उसे डाँटते हुए मैं उठता हूँ। पूरे दिमाग़ का दही कर दिया था उसने। मन नहीं लग रहा था। मन लगाने की मेरे पास एक ही दवा है कि मैं कहीं घूमने निकल जाऊँ। शाम हो गई थी। निकलता हूँ। वैसे भी आज क्रिसमस था। धूल आज बहुत कम थी। ऑटो लेता हूँ चुंगी के लिए। ऑटो जैसे ही पुल पर चढ़ी। सामने कुंभ मेले का नज़ारा पसर गया। मेले पर धूसर रंग की चादर फैली हुई थी। यही रंग ही उसका असली रंग था। रील्स और अख़बारों में तो सब रंगारंग था। एक फ़ोटोग्राफर पुल से कुंभ मेले की तस्वीरें उतार रहा था। मेरी आँखें बरबस आसमान की तरफ़ चली गई।
सूरज पश्चिम दिशा में लटक रहा था। बिल्कुल संगम के ऊपर। उसकी आभा देखकर ऐसा लग रहा था कि पूर्णिमा के बाद का चाँद है। एकदम नारंगी। नंगी आँखों से देखा जा सकता था। मैं उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा। अब वह क़िले के ऊपर था। नदी आई। उस पर पीपे के पुल की कतार लगी हुई थीं। अब नदी पार करके आगे आ गया था, जहाँ से सूर्य द्रविड़ शैली के मंदिर के शिखर के ऊपर चमक रहा था। इसे कैमरे में क़ैद किया। चुंगी पहुँचा। पिछले तीन महीने में पूरी चुंगी बदल गई है। उसका विकास हो गया है। इस विकास में कई विशाल पेड़ों की बलि दी गई है।
विकास पेड़ों को खाकर ही अपना पेट क्यों भरता है? यह बात मुझे अभी तक समझ नहीं आई। आपको समझ आई हो, तो बताना। पता नही क्यों मुझे आर्थिक विकास से ज़्यादा आर्थिक समृद्धि आकर्षक लगती है। मैं कहाँ आपको अर्थशास्त्र में उलझा रहा हूँ। बात बस इतनी है कि आर्थिक समृद्धि में व्यक्ति केंद्र में होता है, सरकारों की झोली नहीं।। हालाँकि कान दूसरी तरफ़ से पकड़े तो यह बात सरकार के पक्ष में भी जा सकती है, जैसे लोकतंत्र में तानाशाही।
इलाहाबाद में दो चुंगी हैं। दोनों एक रास्ते के दो छोर पर हैं। लल्ला चुंगी और अलोपीबाग़ चुंगी। दोनों चुंगी अपना पुराना रूप खो चुकी हैं। किसी ज़माने में लल्ला गुरु ने एकदम त्रिमुहानी पर ही एक मिठाई की दुकान खोली थी। दुकान चल निकली। मुझे इसकी सफलता के पीछे का सबसे बड़ा राज महिला छात्रावास का उसके पास होना लगता है। कहते तो यहाँ तक हैं कि एक बार इंदिरा गांधी भी यहाँ चाय पीने आई थीं। अब यह गल्प है कि यथार्थ आप ख़ुद ही तय करें।
दोनों चुंगियों को किसी की नज़र लग गई। लल्ला चुंगी को कहा गया कि सेना की ज़मीन पर बनी है इसलिए अवैध है। अवैध है तो क्या होगा? अरे वही जो आप सोच रहे हैं। बुलडोजर चलेगा। तो चल गया लल्ला गुरु की दुकान पर बुलडोजर। इसी के साथ ध्वस्त हो गई हज़ारों प्रेमियों की प्यार की पहली निशानी। वह चाय और समोसा खाने यही तो आते थे। फिर खिलते थे, उनके मुहब्बत के फूल। बुलडोजर ने सभी फूल को पल भर में धूल में बदल दिया। अब वहाँ लल्ला गुरु की दुकान की अस्थियों के अवशेष ही शेष हैं।
दूसरी छोर पर बसी है अलोपीबाग चुंगी। यह भी विकास के दायरे में आ गई। यहाँ का सारा ढाँचा ही बदल गया है। इस ढाँचे के बदलने से मुझे कोई एतराज़ नहीं लेकिन पेड़ों को काटना ही हमेशा क्यों ज़रूरी होता है!
इस गर्मी जब दुनिया भर के लोग संगम नहाकर चले जाएँगे, तब इलाहाबादी गर्मी की हीटवेव में भूजे जाएँगे। तब उन्हें याद आएँगे वह पेड़, जो विकास में मारे गए। वैसे हीटवेव बस इलाहाबादियों को ही महसूस होती है, प्रयागराजियों से पूछिए तो बह बताएँगे कि हीटवेव में अमृत का गर्म लावा बह रहा है। जो भी इसमें नहाएगा उसे अगले एक सौ चौवालीसवें साल बाद लगने वाले कुंभ में नहाने का शुभ अवसर मिलेगा। हाँ गंगा उस समय भले न मिले लेकिन उसका बालू तो ज़रूर मिलेगा। तो इस तरह दोनों चुंगियों का विकास हो गया।
मुझे बार-बार अलोपीबाग चुंगी के पीपल और नीम के पेड़ याद आते हैं, जहाँ गर्मियों में राहगीर अपने गंतव्य प्रस्थान करने से पहले सुस्ता लिया करते थे। अबकी बार वह कहाँ पनाह लेंगे, मुझे नहीं पता। इस विकास ने मेरे कई पेड़ों को मुझसे छीना है। सबसे ज़्यादा मुझे उन पेड़ों की याद आती है, जो हॉलैंड हाल से लल्ला चुंगी तक अमलतास के पेड़ कतारों में खड़े रहते थे। मैं अक्सर अपनी महिला मित्रों से मिलने हॉलैंड हाल से लल्ला चुंगी तक का सफ़र उन्हीं पेड़ों के साए में करता था। गर्मियों में यह पेड़ नहीं, गार्जियन हो जाया करते जो पहले तो कहते कि धूप में बाहर न निकलो, अगर निकलना ज़रूरी हुआ तो मेरी छत्रछाया में ही रहना। ठीक उनके नीचे मिट्टी धूप के गर्म हवाओं को अपने में जज़्ब कर लेती थी। तब काहे कि हीटवेव।
न जाने कितनी शामें यहाँ खड़े होकर मुलाक़ाती प्रेमियों ने गुज़ारी। रात के होते धुँधलके में यहीं खड़े होकर, उसकी आड़ में एक-दूसरे को पहली बार चूमा था। तब जब पेड़ों की आड़ में थोड़ी देर के लिए कोई नहीं होता था। न आदमी न स्ट्रीट लाइट का प्रकाश—चंद सेकेंड भी काफ़ी होते थे, प्रेमियों को एक-दूसरे को चूम लेने या बाहों में भर लेने के।
बरसात का मौसम प्रेमियों के लिए प्रेम की फुहारें लेकर आता। जब बरसात ज़ोर पर होती, तब दूर तक सड़कें ख़ाली होतीं और होता एक शून्य जिसे प्रेमी मिलकर भर देते। ऐसा ही सावन का एक महीना था। बादलों से भरा हुआ आकाश। बिजलियाँ तड़क रही थीं। मैंने अपनी प्रेमिका को कॉल लगाया। बात करते हुए माहौल संगीतमय हो गया। मैंने गाया, “मौसम है आशिकाना/ ऐ दिल कहीं से उनको ढूँढ़ लाना।” यह गाना गाते ही पता नहीं कैसे मेरे मुँह से निकल गया कि काश इस शाम तुम मेरे पास होती तो ख़ूब चूमते हम एक-दूसरे को। इतने में प्रेमिका ने भी कह दिया कि दम होतो आ जाओ। मैंने तो रोमांटिक होते हुए कहा था। उसने तो चुनौती दे डाली। मैं फँस गया। क्या करूँ! कुछ समझ नहीं आ रहा था, लेकिन ऐसे चुनौतीपूर्ण समय की स्मृतियाँ ही तो प्रेम में याद रह जाती हैं। मैंने तय किया कि चलता हूँ। फिर जो होगा, देखेंगे।
हॉस्टल से निकला तो सामान्य बूँदा-बाँदी हो रही थी। जैसे ही निकलकर बाहर सड़क पर आया बारिश की बूंदों की संख्याएँ बढ़ गईं। मुँह से निकली बात कभी वापस नहीं आती तो प्रेम में निकला प्रेमी कैसे वापस लौटे। मैं जल्दी ही अमलतास की कतारों के नीचे आ गया। वहाँ से भीगता हुआ पहुँच गया महिला छात्रावास। मैंने उसे कॉल किया, उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं आ गया हूँ। अब तो उसे आना था। उसे आने में देर हो रही थी। मुझे एक गाना याद आ गया, “बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी। आख़िर तुम्हें आना है।” वह छाता लिए हुए आई। रात के आठ ही बजे थे। तब तक सभी दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करके चले गए थे। सड़क पर गाड़ियाँ तेज रफ़्तार में चलीं जा रही थीं। पूरा मैदान ख़ाली था। कहीं कोई नहीं। थे तो केवल प्रेमी-प्रेमिका जो अलग-अलग जगहों पर एक-दूसरे को या तो कसकर पकड़े हुए थे या बेहताशा चूमें जा रहे थे।
वह आई। मैं हनुमान चबूतरे के बग़ल में एक दुकान की ओट में खड़ा हो गया। हमने भी जी भर कर एक-दूसरे को चूमा। पानी और तेज़ी से बरसने लगा था। जितना ही पानी तेज़ होता जा रहा था, उतनी ही हमारी साँसें। जब मेरी साँस उखड़ी तो याद आया कि नौ बजने को हो आए हैं। हॉस्टल का गेट तो बंद होने वाला है। हम एक-दूसरे को छोड़ ही नहीं पा रहे थे। अब नौ बजने में पाँच मिनट बाक़ी थे। हमने एक-दूसरे को अलग किया। वह हॉस्टल के अंदर जाते हुए मुझे देखती रही, जैसे कि उसका कुछ हिस्सा, मेरे हिस्से में बाक़ी रह गया हो। मेरी तरह ही अचानक उस सड़क पर बीसों प्रेमी लड़के उतर आए। उसमें एक तो मेरे सीनियर थे। मैं उन्हें देखते ही सकपका गया। दूर से ही प्रणाम किया—सर! प्रणाम। वह भी जवाब में प्रणाम करके, तुरत निकल गए। हमारा उसूल था कि सीनियर्स को देखकर पहले हाथ को मोड़कर हृदय पर लाना है, फिर सिर झुकाते हुए कहना है—सर! प्रणाम। हमारे और उनके बीच सौ क़दम का फ़ासला था जबकि जाना दोनों को एक ही हॉस्टल था। मुझे पक्का यक़ीन है कि इस वाक़ये को आप गल्प मानकर भूल जाएँगे जैसे जनता से किए गए वादे सरकारें भूल जाती हैं।
वह दिन है और आज का दिन है, अब मैं प्रयागराज में खड़ा हूँ। मूसलाधार बारिश में भी प्रेमी कुछ नहीं कर सकते, सिवाय खड़े होकर एक-दूसरे को देखने के। अब न अमलताश के पेड़ हैं, न वह एफ़सीआई बिल्डिंग वाली गली और न हनुमान चबूतरा। चारों तरफ़ सीसीटीवी कैमरे हैं। अब के प्रेमी तो हाथ पकड़कर भी खड़े न हो पाएँ, चूमने की बात तो दूर है। फिर कहाँ चूमेंगे आप अपनी प्रेमिका को? कंपनी बाग़ में? यूनिवर्सिटी कैंपस में? चारों ओर पहरे ही पहरे हैं। स्मार्टनेस का ओज इतना तेज़ है कि कंपनी बाग़ का कोई कोना न होगा, जहाँ से चुबंनरत प्रेमी दिखाई न दें। ऊपर से कुंठितों की संख्या भी बढ़ गई है, जो झुरमुटों के बीच से ताकते रहते हैं, पूरी बेशर्मी और बेहयाई के साथ। तो कहाँ जाएँगे आप? यूनिवर्सिटी तो वैसे भी इंटर कॉलेज हो चुकी है, जहाँ शाम होते ही गार्ड डंडा लेकर सबको भगाता फिरता है। कंपनी बाग़ वाली स्मार्टनेस तो यहाँ भी अपने पाँव पसार चुकी है। हाँ, सीनेट हॉल की सीढ़ियाँ भले ही एकांत दे दे, लेकिन सीसीटीवी तो वहाँ भी है। और जहाँ तक रही बात कमरे की है तो आप बिना मकान-मालिक की परमिशन के बिना मुर्गा तो बना नहीं सकते, प्रेमिका को वहाँ लाने के विषय में सोचना तो भूल जाइए।
एक दूसरा पेड़ और है जिसे मैं ताउम्र याद रखूँगा। वह है, ठीक पुलिस चौकी के सामने और तिलक भवन के पीछे। तब तिलक भवन एक खंडहर हुआ करता था, जहाँ यूनिवर्सिटी के कुछ भगोडे़ रात में बैठकर शराब पीते थे। लसोढे का पेड़ था, मोटा और घना। इतना घना कि बरसात का एक लहरा पानी रोक ले। इसी के नीचे लगती थी हमारी प्रिय—चाची की चाय की दुकान। ऐसा नहीं था कि चाची बहुत स्पेशल चाय बनाती थीं, चाय तो उनकी फीकी ही होती, लेकिन उसमें प्यार का जो शक्कर मिलाती थीं न। वही चाय को विशेष बना देता था। हम अक्सर यहाँ दिन में तीन से चार बार आते। तपते जेठ में यह जगह एक छोटे से हिल स्टेशन में तब्दील हो जाती, जहाँ आते-जाते लोग सुस्ताने बैठ जाते। नव तरुण-तरूणियों के लिए यह बहुत मुफ़ीद जगह थी। वह यहाँ बेफ़्रिक़ होकर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए बात कर सकते थे। उद्दंड लड़के यहाँ कम ही आते थे।
चाची हम लोगों की मेंटर थीं। शाम को वहाँ जब हम पहुँचते तो पूरे दिन के क़िस्से हमें सुनाते हुए, नसीहत देना नहीं भूलतीं कि उस लड़के से या लड़की से बचकर रहना। उसका चाल-चलन ठीक नहीं है।
एक बार मेरा एक दोस्त एक लड़की के साथ चाय पीने आया। पीकर चला गया। हम लोग पहुँचे तो चाची ने बताया कि फलाने एक लड़की के साथ चाय पीने आए थे। हमने चाची से कहा कि वह तो उससे शादी करने वाला है। वह बोलीं कि बेटवा उ ठीक लड़की ना बा। ओसे शादी कहि दीहा मत करि। एक दिन हम सभी लोग चाय पीने पहुँचे। वह भी था। हमने जानबूझ फिर वही बात उभारी। उन्होंने फिर वही नसीहत दे दी। हम ख़ूब हँसे। मुझे याद आता है वह दिन जब नेट परीक्षा का परिणाम आया था। मेरा जेआरएफ़ उस बार भी नहीं हुआ था। मैं उदास बैठा था। चाची के दुकान से एक चूहा टहलता हुआ आया और मेरे पैरों पर चढ़ता हुआ ठेहुने पर बैठ गया। मैं उसे एकटक देख रहा था, वह मुझे। फिर वह हँसा। हाँ सचमुच में हँसा था वह। बदले में मैंने हँसी के फ़व्वारे उड़ा दिए। वह कूदा और फिर से वहीं सामानों के बीच घुस गया। मैंने चाची से मुस्कुराते हुए कहा कि चाची एकठो चाय दीहा त। ऐसा था एक पेड़ का होना।
फिर वह दिन आया, सरकार की ओर से घोषणा हुई कि शहरों को स्मार्ट बनाएँगे। ऐसी स्मार्ट सिटी जहाँ मिट्टी का एक अंश मात्र भी नहीं होगा। यही वह बिंदु था, जहाँ से हमारी जगहें हमसे छीनी जानी थीं। पत्थरों के घरों में रहने वाले क्या जाने मिट्टी का मोल। पूरे शहर में कंक्रीट के जंगल उगाने की परियोजना शुरू हुई। सबको स्मार्ट बनाया जाना था। इसी स्मार्टनेस की भेट चढ़ गए सभी पेड़। जिस दिन मशीनें अमलतास के पौधों को काट रही थीं, मैं वहीं था। ऐसा लग रहा था—वह मेरे मन पर चल रही हैं। हम क्या कर सकते थे, सिवाय सरकारों को कोसने के। हमने जी भर कोसा उन्हें। जैसे ही लसोढे़ के पेड़ को उन्होंने काटा, लगा कि मेरी गर्दन ही कट गई है। उसकी जड़ें कुछ दिन वहाँ पड़ी रहीं। फिर एक दिन वह भी गायब हो गई। उस दिन हम किपलिंग बंगला में देर तक बैठे, यह संहार देखते रहे। इस तरह हमारे पेड़ हमसे दूर हो गए। उसी के साथ ख़त्म हो गई चाची की दुकान। एक छोटी-सी दुनिया और उसकी स्मृतियाँ।
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