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‘अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा...’

बरस 1947 है,  तारीख़ 14 अगस्त,  दिन गुरुवार,  रात का समय।

जब जवाहरलाल नेहरू अपना चुस्त पजामा और शेरवानी पहन रहे थे, संसद में देने वाले थे अपना ऐतिहासिक वक्तव्य। उसी वक़्त मेरे परदादा खेत के मुँडेर को दुरुस्त करके आए थे। वह बारिश के पानी को इकट्ठा करने की जद्दोजहद में थे।

जब जवाहरलाल नेहरू रात्रिभोज में शामिल हो रहे थे। उसी वक़्त मेरी परदादी ने परदादा के सामने रखा सतुआ और बिना ब्लाउज़ के साड़ी से स्तनों को ढकते हुए बैठ गई थीं भीत के सहारे।

जब संसद भवन में मनाया जा रहा था आज़ादी का जश्न, ठीक उसी वक़्त मेरे परदादा ने सतुआ में डाला था पानी। बनाया सतुआ का एक मुँडेर ताकि पानी रुका रहे सतुआ में। उन्होंने सतुआ की पिठुरी बनाई और फिर धीरे-धीरे, एक-एक कर निगल गए। नमक नहीं था सतुआ में, शायद क़ानून तोड़ने में चूक गया था सारा नमक।

जब जवाहरलाल नेहरू ने कहा हम आज़ाद हैं, मेरे गाँव में ज़ोर से चमकी बिजली और भीत का घर काँप गया। सुबह चमईन की देख-रेख में पैदा हुए मेरे बाबा। वह आज़ाद भारत की संतान थे।

देश आज़ाद हो चुका था, पर आज़ादी के कुछ साल बाद से ही वह ख़्वाबगाह टूटने लगी थी। आज़ादी के पाँच साल बाद एक फ़िल्म आती है, जो नए देश के आम नागरिकों की त्रासद को पर्दे पर हुबहू उतार देती है। इस फ़िल्म का नाम है—‘दो बीघा ज़मीन’।

1953 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म का नाम, रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता ‘दुई बीघा जोमी’ के नाम पर रखा गया। फ़िल्म की पटकथा सलिल चौधरी की कहानी ‘रिक्शावाला’ पर आधारित है। सामाजिक सरोकार से जुड़ी यथार्थवादी फ़िल्में बनाने वाले विमल रॉय ने इस फ़िल्म को बनाया था। कहा जाता है कि विमल रॉय ने 1948 में आई Vittorio De Sica की फ़िल्म The Bicycle Thief से प्रभावित होकर यह फ़िल्म बनाई थी। विमल रॉय के अलावा ‘दो बीघा ज़मीन’ में कई बड़े कलाकारों ने काम किया। पॉल महेंद्र और हृषिकेश मुखर्जी ने फ़िल्म के स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे।

फ़िल्म में मुख्य किरदार बलराज साहनी और निरूपा रॉय ने निभाया। थोड़े समय के लिए मीना कुमारी भी फ़िल्म में नज़र आती हैं। मुराद, रतन कुमार और नासिर हुसैन ने भी इसमें बारीक़ अभिनय का परिचय दिया है।

फ़िल्म उत्तर भारतीय एक गाँव से शुरू होती है, जहाँ के लोगों का मुख्य पेशा खेती है। इस गाँव का ज़मींदार शहर के पूँजीपति व्यापारी के साथ मिलकर गाँव में एक फ़ैक्ट्री बनाने की पहल करता है, लेकिन ज़मींदार के ज़मीन के बीच में शंभू महतो (बलराज साहनी) की दो बीघे ज़मीन रहती है। ज़मींदार शंभू से ज़मीन बेचने के लिए कहता है, शंभू के मना करने के बाद वह अपना दिया हुआ क़र्ज़ वापस करने को कहता है। शंभू सब कुछ गिरवी रखने के बाद ज़मींदार का क़र्ज़ चुकाने जाता है, पर ज़मींदार क़र्ज़ पर कई गुना ब्याज लाद चुका है। मामला अदालत में जाता है, शंभू को क़र्ज़ चुकाने के लिए तीन महीने का वक़्त मिलता है। वह पैसा कमाने कलकत्ता जाता है, पर वहाँ त्रासदी का शिकार हो जाता है। तीन महीने बाद जब शंभू गाँव लौटता है, तो उसकी दो बीघा ज़मीन पर फ़ैक्ट्री बन रही होती है। उसका बाप पागल हो चुका होता है। जब शंभू अपनी ज़मीन की मिट्टी उठाता है, तभी दरबान उसे डाँटकर भगा देता है और फ़िल्म समाप्त हो जाती है।

इस फ़िल्म ने बड़ी ज़ोर देकर कहा है कि देश में आज़ादी के बाद से ही सामंतवाद और पूँजीवाद का गठजोड़ होना शुरू हो गया था। शहर के पूँजीपतियों ने गाँव को निशाना बनाना शुरू कर दिया था। आप ग़ौर करेंगे कि ये वही साल हैं—जब देश में पूँजीगत उद्योग की स्थापना की ज़ोर-शोर से वकालत होती है और नेहरू सरकार की दूसरी पंचवर्षीय योजना इस मुहिम को सहमति देती है, और गांधी के गाँव को जबरन विकास की भट्टी में झोंक दिया जाता है।

ग्रामीण समाज और उसमें व्याप्त दरिद्रता को फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया गया है। गठीले अधनंगे शरीर पर धोती का एक टुकड़ा पहने फ़िल्म का नायक शंभू महतो (बलराज साहनी) खेती करता है, और उसकी पत्नी पारो (निरूपा रॉय) भी मज़दूरी करती है, लेकिन इस घोर ग़रीबी में भी प्रेम का झरना फूटता है—जब शंभू कहता है, “अबकी फ़सल अच्छी हुई तो नाथूराम सोनार से तेरी गिरवी पायल छुड़ा लाऊँगा।’’

प्रवास और उसकी पीड़ा को आवाज़ देता इस फ़िल्म का गीत, जिसे शैलेंद्र ने लिखा और मन्ना डे और लता मंगेशकर ने गाया... यह गीत फ़िल्म में तब आता है, जब शंभू अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए कलकत्ता कमाने जाता है :

भाई रे…
धरती कहे पुकार के 
बीज बिछा ले प्यार के 
मौसम बीता जाए, 
मौसम बीता जाए
कुछ तो कहानी छोड़ जा 
अपनी निशानी छोड़ जा 
कौन कहे इस ओर तू फिर आए न आए…

बलराज साहनी ने इस फ़िल्म से जुड़े कई क़िस्से ख़ुद बताए, उन्होंने बताया कि कैसे इस रिक्शेवाले किरदार को जीवंत बनाने के लिए उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) की सड़कों पर हाथ रिक्शा खींचा। एक बार जब वह थक गए और दूधवाले की दुकान पर दूध ख़रीदने गए तो दुकानदार ने उन्हें भागा दिया। यह शहर था, जहाँ भेदभाव जात के आधार पर नहीं, पोशाक के आधार पर हो रहा था। परिक्षित साहनी ने अपने पिता को याद करते हुए एक किताब लिखी है—The Non-Conformist:  Memories of My Father Balraj Sahni—जिसमें दो बीघा ज़मीन से जुड़े कई क़िस्से हैं।

फ़िल्म में शहरी मध्यमवर्ग की बदमाशी की ओर इशारा करते हुए, एक दृश्य है—जब कोलकाता की सड़कों पर एक अभिजात्य प्रेमी जोड़ा एक-दूसरे से मज़ाक़ कर रहा है। मज़ाक़ में ही प्रेमिका एक हाथरिक्शे पर बैठकर भागने लगती है। उसका प्रेमी पीछे से दूसरे हाथरिक्शे से अपनी प्रेमिका का पीछा करता है। प्रेमिका अपने रिक्शेवाले को ज़ोर से रिक्शा दौड़ाने को कहती है और यही प्रेमी भी कहता है। दोनों हाथ-रिक्शा खींचने वाले कुछ रुपए के लिए घोड़े से भी बदतर दौड़ रहे होते हैं। 

फ़िल्म में एक बग़ावती उद्घोष भी है, जिसे शैलेंद्र ने अपनी स्याही से शब्दों में उतारा है और आवाज़ मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर की है, संगीत सलिल चौधरी का। यह उद्घोष असमानता से मुक्ति का है, जो ईश्वर को भी सवाल के कटघरे में खड़ा करता है :

अजब तोरी दुनिया हो मोरे रामा
पर्वत काटे सागर पाटे, महल बनाए हमने
पत्थर पे बगिया लहराई फूल खिलाए हमने
हो के हमारी हुई न हमारी
अलग तोरी दुनिया हो मोरे रामा 

दो बीघा ज़मीन ने बलराज साहनी के जीवन पर भी गहरा असर डाला। हिंदी-कवि आलोकधन्वा अपनी कविता ‘बलराज साहनी’ में लिखते हैं : 

दो बीघा ज़मीन में
काम करते हुए
बलराज साहनी ने देखा
फ़िल्मों और समाज के किरदारों के 
जटिल रिश्तों को
धीरे-धीरे 
वे अपने भीतर की दुनिया से
बाहर बन रहे 
नए समाज के बीच आने-जाने लगे 

यह फ़िल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है, आप इसे यहाँ देख सकते हैं : https://youtu.be/_a5cZ6OkgmA?si=a7yXui3b4Nv-FD2-

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