दयानंद सरस्वती के उद्धरण


मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे, अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे।
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जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्त जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात करना उपासना कहाती है, इसका फल ज्ञान की उन्नति आदि है।
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जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को चलाते हैं, जिससे आप और सब संसार को इस लोक अर्थात् वर्तमान जन्म में, परलोक अर्थात् दूसरे जन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग करते कराते हैं, वे ही धर्मात्मा जन संन्यासी और महात्मा हैं।
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जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि मात्र करता है वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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