
आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं है। वह संकल्प भी है। क्योंकि जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या न होना बराबर ही है।

कुछ संकल्प आवेग के आविष्कार होते हैं, समझ का परिणाम नहीं। ये टूट जाते है और संकल्प को तोड़ना रीढ़ की हड्डी को कमज़ोर करना है।

आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन् उसके लिए सतत् श्रम भी है, क्योंकि सतत् श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है।

संकल्प और इच्छा में भेद होता है। काव्य की अन्य विधाओं में ‘भाव’ या ‘इच्छाशक्ति’ की रूमानी तरलता मुख्य होती है, परंतु महाकाव्य में संकल्प का ही प्राधान्य होता है।

संकल्प ही चरित्रों को ठोसपन तथा कथा के आकार को सुदृढ़ता देता है।

वास्तव में झगड़ा खड़ा करने के लिए एक व्यक्ति ही पर्याप्त होता है। भेड़ों का शाकाहारवाद के पक्ष में प्रस्तावों को पारित करना निरर्थक ही है जबकि भेड़िया भिन्न मत का बना रहे।

संकल्प का काठिन्य चाहे वह सत्संकल्प हो या दुष्ट संकल्प, रामायण के पात्रों में कूट-कूटकर भरा है।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere