समुद्र के किनारे एक गाँव था। उसमें एक कलाकार रहता था। वह दिनभर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता। रंग-बिरंगी कौड़ियाँ, नाना रूप के सुंदर-सुंदर शंख, चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र-जाल में भर देता। उनसे वह तरह-तरह
“मैं तो ज़रूर जाऊँगा, चाहे कोई छुट्टी दे या न दे।” बलदेव सब लड़कों को सर्कस देखने चलने की सलाह दे रहा है। बात यह थी कि स्कूल के पास एक मैदान में सर्कस पार्टी आई हुई थी। सारे शहर की दीवारों पर उसके विज्ञापन चिपका दिए गए थे। विज्ञापन में तरह-तरह
सहसा मेरी पाँच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी ‘अगड़म बगड़म’ का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ़ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!” मैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। नायक, नायिका को लेकर अँधेरी रात में जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी
एक बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता—"बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।" इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किंतु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुनने वाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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