एक डायरी के पन्ने
4 अगस्त 1939। पानी मूसलाधार बरस रहा है। बाहर चरवाहे गला खोलकर बिरहा गा रहे हैं। एक अजब सुरूर मेरी आत्मा पर छा गया है। मैं झूम-झूमकर गुनगुनाता हूँ, एकाकिनी बरसातें। मेरे मकान के बाहर ताल मे बटु-समुदाय वेद-पाठ करता है। वह जेठ की विकट गर्मी; वह आषाढ़ का