लालच पर दोहे

लालच किसी पदार्थ, विशेषतः

धन आदि प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है जिसमें एक लोलुपता की भावना अंतर्निहित होती है। इस चयन में लालच विषय पर अभिव्यक्त कविताओं को शामिल किया गया है।

माया मुई मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।

आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥

कबीर कहते हैं कि प्राणी की माया मरती है, मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।

कबीर

मन की ममता ना गई, नीच छोड़े चाल।

रुका सुखा जो मिले, ले झोली में डाल॥

निपट निरंजन

असुर भूत अरू प्रेत पुनि, राक्षस जिनि कौ नांव।

त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, करै खांव ही खांव॥

सुंदरदास

सुन्दर या मन सारिषौ, अपराधी नहिं और।

साप सगाई ना गिनै, लखे ठौर कुठौर॥

सुंदरदास

मन कौं रापत हटकि करि, सटकि चहूं दिसि जाइ।

सुंदर लटकि रु लालची, गटकि बिषै फल पाइ॥

सुंदरदास

सुन्दर प्रभुजी पेट इनि, जगत कियौ सब ख्वार।

को खेती को चाकरी, कोई बनज ब्यौपार॥

सुंदरदास

बंबई, थलहि समुद्र मैं, पानी सकल समात।

त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, रहै खात ही खात॥

सुंदरदास

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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