मित्र पर दोहे

मित्रता दो या दो से

अधिक व्यक्तियों के बीच का अंतर्वैयक्तिक बंधन है जिसके मूल में आत्मीयता होती है। मित्रता के गुणधर्म पर नीतिकाव्यों में पर्याप्त विचार किया गया है। इस चयन में मित्र और मित्रता-संबंधी अभिव्यक्तियों को शामिल किया गया है।

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

रहीम

अगलिअ-नेह-निवट्टाहं जोअण-लक्खु वि जाउ।

वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ॥

अगलित स्नेह में में पके हुए लोग लाखों योजन भी चले जाएँ और सौ वर्ष बाद भी यदि मिलें तो हे सखि, मैत्री का भाव वही रहता है।

हेमचंद्र

तोय मोल मैं देत हौ, छीरहि सरिस बढ़ाइ।

आँच लागन देत वह, आप पहिल जर जाइ॥

दूध पानी को अपने में मिलाकर उसका मूल्य अपने ही समान बना देता है। पर जब दूध को आग पर गर्म किया जाता है तो दूध से पहले पानी अपने को जला लेता है और दूध को बचा लेता है। मित्रता हो तो दूध और पानी जैसी हो।

रसनिधि

सुख मैं होत सरीक जौ दुख सरीक सौ होय।

जाकौ मीठौ खाइयै कटुक खाइयै सोय॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि जो व्यक्ति जिसके सुख में शामिल होता है, उसी व्यक्ति को उसके दुःख में भी शामिल होना चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति जिस व्यक्ति के सुख रूपी मीठे का उपभोग करता है, उसी व्यक्ति को उसका कडुवा भी खाना चाहिए। अर्थात् सुख−दुःख में समान भाव से पूरित होकर व्यक्ति को एक−दूसरे का सहयोग करना चाहिए। सच्चा मित्र वही होता है।

वृंद

रति बिन रस सो रसहिसों, रति बिन जान सुजान।

रति बिन मित्र सु मित्रसो, रति बिन सब शव मान॥

प्रेम के बिना रस ज़हर के समान, ज्ञान अज्ञान के समान, मित्र अग्नि के समान और वस्तुएँ शव के समान दुखदाई एवं निरर्थक हैं।

दयाराम

ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।

जैसे छीलर ताल जल घटत घटत घट जाय॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि ओछे व्यक्ति की प्रीति अर्थात् मित्रता नीच रीति के समान अर्थात् निकृष्ट रूप में ही होती है। वह उसी प्रकार से घटती जाती है, अर्थात् अव्यावहारिक होती जाती है जिस प्रकार छिछले तालाब का जल घटते−घटते पूरा घट जाता है।

वृंद

पीछे निन्दा जो करें, अरु मुख पैं सनमान।

तजिए ऐसे मीत को, जैसे ठग-पकवान॥

दीनदयाल गिरि

राजत रंच दोष युत कविता बनिता मित्र।

बुंदक हाला परत ज्यों गंगाघट अपवित्र॥

केशवदास

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere