बच्चे पर दोहे
हिंदी के कई कवियों ने
बच्चों के वर्तमान को संसार के भविष्य के लिए समझने की कोशिश की है। प्रस्तुत चयन में ऐसे ही कवियों की कविताएँ संकलित हैं। इन कविताओं में बाल-मन और स्वप्न उपस्थित है।
थाल बजंता हे सखी, दीठौ नैण फुलाय।
बाजां रै सिर चेतनौ, भ्रूणां कवण सिखाय॥
नवजात शिशु के लिए माता अपनी सखी से कहती है कि प्रसूतिकाल के समय ही बजते हुए थाल को इसने आँखें फुला-फुला कर देखा। हे सखी! बाजा सुनते ही उल्लसित हो जाना गर्भ में ही इन्हें कौन सिखाता है? अर्थात् शूर-वीर के लिए उत्साह और स्फूर्ति जन्मजात होती है।
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बाल बिभूषन बसन बर, धूरि धूसरित अंग।
बालकेलि रघुबर करत, बाल बंधु सब संग॥
श्री राम जी बालोचित सुंदर गहने-कपड़ों से सजे हुए हैं, उनके श्री अंग धूल से मटमैले हो रहे हैं, सब बालकों तथा भाइयों के साथ आप बच्चों के-से खेल खेल रहे हैं।
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere