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अकुलानि के पानि पर्यौ दिनराति

akulani ke pani paryau dinrati

घनानंद

अन्य

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घनानंद

अकुलानि के पानि पर्यौ दिनराति

घनानंद

और अधिकघनानंद

    अकुलानि के पानि पर्यौ दिनराति सु ज्यौ छिनकौ कहूँ बहरै।

    फिरि वोई करै चित चेटक चाक लौं धीरज को ठिकु क्यौं ठहरै।

    भए कागद-ताव उपाव सबै घनआनँद नेह नदी गहरै।

    बिन जान सजीवन कौन हरै सजनी बिरहा-विष की लहरै॥

    हे सखी! आकुलता के हाथों में दिन-रात पड़ा मेरा जी एक क्षण के लिए भी कहीं बहलता नहीं। प्रिय के सुखदान के उपकार से दबा चित्त कुम्हार के चाक की भाँति चक्कर काटता रहा है, उसमें धैर्य की स्थिरता प्राप्त नहीं होती। मन कुछ स्थिर हो तो उसमें धैर्य टिके भी। इस गहरी प्रेम-नदी में इसे पार करने के उपाय सब कागद की नाव की भाँति व्यर्थ सिद्ध हुए। इस विरह विष की लहरों को बिना सजीवन सुजान के और कोई दूर कर ही नहीं सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 207)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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