राधिका कान्हा को ध्यान धरैं, तब

radhika kanha ko dhyan dharain, tab

देव

देव

राधिका कान्हा को ध्यान धरैं, तब

देव

राधिका कान्ह को ध्यान धरैं तब कान्ह ह्वै राधिका के गुन गावै।

त्यों अँसुवा बरसै बरसाने को पाती लिखै लिखि राधिकै ध्यावै।

राधे ह्वै जाइ तेही छिन देव सु प्रेम की पाती लै छाती लगावै।

आपु ते आपुही मैं उरझै सुरझै बिरझै समुझै समुझावै॥

राधा कृष्ण के ध्यान में इतनी तल्लीन हो जाती है कि वह भूल जाती है कि वह राधा है। वह स्वयं को कृष्ण समझ बैठती है और तब वह अपने ही गुणों का बखान करने लगती है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। वह बरसाने को पत्र लिखती है और लिखकर राधिका के बारे में सोचने लगती है। फिर वह क्षण भर में राधा बन जाती है। उसे ध्यान जाता है कि मैं कृष्ण नहीं हूँ। वह प्रेम की पाती को अपने सीने से लगा लेती है। प्रेमभाव से विभोर होकर वह अपनापन भी भूल जाती है। वह कभी तो स्वयं को कृष्ण समझ लेती है और कुछ समय बाद वह फिर संभल जाती है और स्वयं को राधा ही समझती है। इस प्रकार वह अपने आप ही उलझन में पड़ जाती है। कभी वह उलझन को दूर करती है, कभी उलझती है और फिर स्वयं को समझाती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : देव ग्रंथावली, प्रथम खंड (पृष्ठ 286)
  • संपादक : लक्ष्मीघर मालवीय
  • रचनाकार : देव
  • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
  • संस्करण : 1967

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