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स्त्री सेवा पद्धति

istri sewa paddhati

भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र

स्त्री सेवा पद्धति

भारतेंदु हरिश्चंद्र

इस पूजा से अश्रु जल ही पाद्य है, दीर्घ श्वास ही अर्घ्य है, आश्वासन ही आचमन है, मधुर भाषण ही मधुपर्क है, सुवर्णालंकार ही पुष्प हैं, धैर्य ही धूप है, दीनता ही दीपक है, चुप रहना ही चंदन है, और बनारसी साड़ी ही विल्वपत्र है, आयुरूपी आँगन में सौंदर्य तृष्णा रूपी खूँटा है, उपासक का प्राण पुंज-धाग उसमे बंध रहा है, देवी के सुहाग का खप्पर और प्रीति की तरवार है, प्रत्येक शनिवार की रात्रि इसमें महाष्टमी है और पुरोहित यौवन है।

पाद्यादी उपचार करके होम के समय यौवन पुरोहित उपासक के प्राण समिघो में मोहाग्नि लगाकर सर्वनाश तंत्र के मंत्रों से आहुत दे ‘‘मान खंडन के लिए निद्रास्वाहा’’ ‘‘बात मानने के लिए माँ बाप बंधन स्वाहा’’ ‘‘वस्त्रालंकारादि के लिए यथा सर्वस्व स्वाहा’’ ‘‘मन प्रसन्न करने के लिए यह लोक परलोक स्वाहा’’ इत्यादि, होम के अनन्तर हाथ जोड़कर स्तुति करै।

हे स्त्री देवी संसार रुपी आकाश में तुम गुब्बारा हो क्योंकि बात-बात में आकाश में चढ़ा देती हो पर जब धक्का दे देती हो तब समुद्र में डूबना पड़ता है। अथवा पर्वत के शिखरों पर हाड़ चूर्ण हो जाते है, जीवन के मार्ग में तुम रेलगाड़ी हो, जिस समय रसना रूपी एंजिन तेज़ करती हो एक घड़ी भर में चौदहों भुवन दिखला देती हो, कार्य क्षेत्र में तुम इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ हो, बात पड़ने पर एक निमेष में उसे देश देशांतर में पहुँचा देती हो, तुम भवसागर में जहाज़ हो, बस अधम को पार करो।।

तुम इंद्र हो, श्वसुर कुल के दोष देखने के लिए तुम्हारे सहस्त्र नेत्र हैं, स्वामी शासन करने में तुम वज्रपाणि हो। रहने का स्थान अमरावती है क्योंकि जहाँ तुम हो वहीं स्वर्ग है।

तुम चन्द्रमा हो, तुम्हारा हास्य कौमुदी है, उससे मन का अन्धकार दूर होता है। तुम्हारा प्रेम अमृत है, जिसकी प्रारब्ध में होता है वह इसी शरीर से स्वर्ग सुख अनुभव करता है और लोक में जो तुम व्यर्थ पराधीन कहलाती हो, यही तुम्हारा कलंक है।

तुम वरुण हो क्योंकि इच्छा करते ही अश्रुजल से पृथ्वी आर्द्र कर सकती हो! तुम्हारे नेत्र जल की देखा-देखी हम भी गल जाते हैं।

तुम सूर्य्य हो, तुम्हारे ऊपर आलोक का आवरण है पर भीतर अन्धकार का वास है, हमें तुम्हारे एक घड़ी भर भी आँखों के आगे न रहने से दसों दिशा अन्धकारमय मालूम होता है पर जब माथे पर चढ़ जाती हो तब तो हम लोग उत्ताप के मारे मर जाते हैं। किम्बहुना देश छोड़कर भाग जाने की इच्छा होती है।।

तुम वायु हो क्योंकि जगत की प्राण हो। तुम्हें छोड़कर कितनी देर जी सकते हैं? एक घड़ी भर तुम्हें बिना देखे प्राण  तड़फड़ाने लगते हैं, जल में डूब जाने की इच्छा होती है, पर तुम प्रखर बहती हो, किसके बाप की सामर्थ्य है कि तुम्हारे सामने खड़ा रहे।।

तुम यम हो यदि रात्रि को बाहर से आने में विलम्ब हो, तो तुम्हारी वक्तृता नरक है। यह यातना जिसे न सहनी पड़े वही पुण्यवान है उसी की अनंत तपस्या है।।

तुम अग्नि हो क्योंकि दिन रात्रि हमारी हड्डी हड्डी जलाया करती हो।।

तुम विष्णु हो तुम्हारी नथ तुम्हारा सुदर्शन चक्र है उस के भय से पुरुष असुर माथा मुड़ा कर तटस्थ हो जाते हैं एक मन से तुम्हारी सेवा करे तो सशरीर बैकुंठ को प्राप्त कर सकता है।

तुम ब्रह्मा हो तुम्हारे मुख से जो कुछ बाहर निकलता है वही हम लोगों का वेद है और किसी वेद को हम नही मानते, तुमको चार मुख है क्योंकि तुम बहुत बोलती हो। सृष्टिकर्ता प्रत्यक्ष ही हो पुरुषों के मनहंस पर चढ़ती हो चारों वेद तुम्हारे हाथ में हैं इससे तुमको प्रणाम है।

तुम शिव हो। सारे घर का कल्याण तुम्हारे अधीन है भुजंग वेनी धारिणी हो, तृशूल तुम्हारे हाथ में है, क्रोध में और कंठ में विष है तो भी आशुतोष हो।

इस दिव्य स्तोत्र पाठ से तुम हम पर प्रसन्न हो। समय पर भोजनादि दो। बालकों की रक्षा करो। भृगुटी धनु के संधान में हमारा वध मत करो और हमारे जीवन को अपने कोप से कंटकमय मत बनाओ। 

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतेन्दुकालीन व्यंग परम्परा (पृष्ठ 41)
  • संपादक : ब्रजेंद्रनाथ पांडेय
  • रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
  • प्रकाशन : कल्याणदास एंड ब्रदर्स
  • संस्करण : 1956

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