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सुमिरो हरि नामहिं बोरे

sumiro hari namahin bore

धरनीदास

अन्य

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धरनीदास

सुमिरो हरि नामहिं बोरे

धरनीदास

और अधिकधरनीदास

    सुमिरो हरि नामहिं बोरे।

    चक्रहुँ चाहि चलै चित चंचल, मूल मती गहि निस्चल कौ रे।

    पाँचहूँ तें परिचै करु प्रानी, काहे के परत पचीस के झौरे॥

    जौं लगि निरगुन पंथ सूझै, काज कहा महि-मंडल दौरे॥

    सबद अनाहद लखि नहिं आवै, चारों पन चलि ऐसाहि गौ रे॥

    ज्यों तेली को बैल बेचारा, घरहिं में कोस पचासक भौरे॥

    दया धरम नहिं साधु की सेवा, काहे के सो जनमे घर चौरे।

    धरनीदास तासु बलिहारी, झूठ तजो जिन्ह साँचहि धौ रे॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : धरनीदास की बानी (पृष्ठ 24)
    • रचनाकार : धरनीदास
    • प्रकाशन : वेलवेडियर छापाखाना इलाहाबाद
    • संस्करण : 1931

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