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करम करतूति बेलि बिसथारी

karam kartuti beli bisthari

गुरु नानक

गुरु नानक

करम करतूति बेलि बिसथारी

गुरु नानक

करम करतूति बेलि बिसथारी राम नामु फलु हूवा।

तिसु रूपु रेख अनाहदु बाजै सबद् निरंजनि कीआ॥

करे वखिआणु जाणै जे कोई। अंमृतु पीवै सोई॥ ॥रहाउ॥

जिन्ह पीआ से मसत भए है तूटे बंधन फाहे।

जोती जोति समाणी भीतर ता छोडे माइआ के लाहे॥

सरब जोति रूपु तेरा देखिआ सगल भवन तेरी माइआ।

रारै रूपि निरालमु बैठा नदरि करे विचि छाइआ॥

बीणा सबदु बजावै जोगी दरसनि रूपि अपारा।

सबदि अनाहदि सो सहु राता नानकु कहै विचारा॥

(शुभ) कर्मों की वेलि का विस्तार हुआ है और उसमें राम नाम का फल लगा है। (उस राम नाम का) कोई रूप है और कोई रेखा, (वह) अनाहत रूप में बज रहा; (राम नाम का) शब्द निरंजन (हरी) ने प्रकट किया है।

(राम नाम की वही) व्याख्या कर सकता है, जो उसे जानता हो। (जो राम नाम जानता है), वही अमृत पीता है।

जिन्होंने (राम नाम का) अमृत पी लिया है, वे (उसी अमृत में) मस्त हो गए हैं, उसके बंधन की फाँसियाँ कट गई हैं। उनकी आंतरिक ज्योति के साथ (परमात्मा की) ज्योंति मिल गई है, और उन्होंने माया के लाभ को त्याग दिया है।

तेरा ज्योतिर्मय रूप सभी में दिखाई पड़ रहा है, सारे लोकों में तेरी हो माया (दिखाई पड़ रही है)। झगड़ों और (दृश्यमान) रूपों में (परमात्मा) निर्लेप होकर बैठा है (और माया की) छाया में (स्थित होकर) सभी को देख रहा है।

वह योगी अपार (हरी के) दर्शन और रूप द्वारा शब्द रूपी वीणाको (निरंतर) बजाता रहता है। नानक यह विचार कर कहते है कि वह परमात्मा उस योगी को अनाहत शब्द में रत पड़ता है, (तात्पर्य यह है कि गुरु के शब्द द्वारा निरकार परमात्मा जाना जाता है)।

स्रोत :
  • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 183)
  • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
  • रचनाकार : गुरु नानक
  • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
  • संस्करण : 2003

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