नायक खोजते अ-नायक हो तुम
अंचित
26 जून 2025

उल्टी धार के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिए। परेशानियों का शुक्रिया कहना चाहिए। अधम मनुष्यों से दूर रहना चाहिए। कविता में सूक्तियों के बारे में जो सोचते हो, गद्य में अगर सूक्तियाँ बन जाती हों, तो उनको बनने देना चाहिए। नया बनता हो—न बनता हो, उनके होने की संभावना से बेचैन रहना चाहिए। पुराने से जितना अपनापा हो, समकालीनता की गंभीरता को हमेशा प्रश्नांकित करना चाहिए। दुनिया भी अस्पताल है, अगर किसी ने अभी तक नहीं कहा हो, कह देना चाहिए। हमें हमारी सुहूलतों ने उजाड़ा है और हम अपनी बीमारियों से खिले हैं—जैसे भी कहा जा सके, कह देना चाहिए।
बहुत पहले किसी अस्पताल के बिलिंग काउंटर पर एक युवा दंपति को फूट-फूटकर रोते देखना स्मृति से नहीं मिटेगा। यह मिट जाना चाहिए कि एक बेवक़ूफ़ की तरह तुमने उनसे कहा कि सब ठीक हो जाएगा। कैसे मिटेगा! बहुत पुरानी बात है कि अस्पताल और कोर्ट के चक्कर छूटते नहीं। इनके बिना जीवन नहीं है, यह नई बात है। मनुष्यता कोई शीशा नहीं है जिस पर कालिख लगी है और उसे पोंछकर साफ़ करना हमारा काम है। हम कोयले की तरह हैं, यह स्वीकार कोई नहीं चाहता। तुम चाहते भी हो और न चाहने से भरे रहते हो... और यह कितनी बार दोहराता है—एक ही जीवन में कि तुम छूटने से बने हो।
न छूटने के कुछ नियम हैं। तुमसे एक भी माना नहीं जाता। तुम अपनी निर्मिति से कुढ़े रहते हो तब भी नहीं। तुम अपनी औसतता से परेशान हो और दूसरों की औसतताओं से घिरे हो। तुम अपनी चोटों से परेशान हो, दूसरे फिर भी तुम पर चोट करते रहते हैं। तुम सोचते हो, तुम एक बीमारी से जूझ रहे हो, तुम्हें कोई और बीमारी कैसे होगी—हो जाएगी।
बीमारियों और दुनिया में करुणा नहीं है, तुमको लगता है।
कोई तुम्हारे मानने को तोड़ता भी नहीं, बस ख़ारिज करता है।
क्या साहित्य इसी दाख़िल-ख़ारिज का खेल भर है?
कोई पुराना विज्ञान तुम्हारी सहायता के लिए नहीं आता। कोई पुराना तर्क तुम्हारी सुरक्षा में नहीं खड़ा है। तुम इससे भागना चाहते हो, और तुम मौत से डरते भी हो। तुम प्रदूषण भरे आकाश में ताकते हुए, तारों की कल्पना करते हो, और गैलीलियो की तरह नज़रबंदी अपनी आत्मा तक महसूस करते हो। एक भी तारा नहीं दिखता। तुम नायकों के रास्ते पर चलना चाहते थे, समय ने तुमसे वे सारे नायक एक-एक कर छीन लिए हैं। महेश वर्मा की कविता में कहे की तरह—तुम किसी के जितने पास जाते हो, उसकी अश्लीलताएँ तुम पर तारी हो जाती हैं। तुम सुलझने के लिए काम कर रहे थे, तुम उलझते जा रहे हो। तुम अपनी शर्तों पर जीना चाहते थे, नौकरियाँ तुम्हारे आस-पास जमा होकर शोर कर रही हैं।
अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े तुम सोचते हो, कोई अपना नहीं है। इतना अकेलापन तुमने झेला है, फिर भी तुम अर्थहीनता से भर जाते हो। तुम हाल के दिनों के अपने पढ़े को याद करते हो। ‘सुसाइड’ नाम का उपन्यास याद आता है। कामू के निष्कर्ष याद करते हो। हर आदमी जो भाषा में फँसा है और संतुष्ट है, उसको दया से देखते हो। क्या यह तुम्हारा अहम है?
तुम लक़ाँ के बारे में सोचते हो जिसने तुम्हारे सोचने के ढंग को इस तरह बदला है कि तुम्हारे भीतर का सिनिक और पुख़्ता हो गया है। अपनी भाषा के सबसे बड़े कवि को माध्यम से क्षमा माँगते देख, उसकी कमज़ोरियों और मजबूरियों को अपनी नसों में महसूस करते हो। क्या यह सिनिक ही तुमको लिखने के लिए मजबूर कर रहा है?
तुमको गंभीरताओं का शौक़ नहीं है। तुम नियमावलियों के प्रति अनपढ़ रहे हो और विशिष्टताओं के प्रति निर्मम। तुम चाह भी लो तो कुछ बदलेगा नहीं। तुमको वैधताएँ नहीं चाहिए, यह तुम्हारा प्रिय कवि तुमसे बार-बार कहता है। तुम ल्योतार का लिखा, किसी कक्षा में सुनाते हुए चुटकुले खोजते हो और जिन निर्णयों और मुक़दमों में तुमको बार-बार फँसाया जाता है, उनको आश्चर्य-भाव से देखते हो। फिर लक़ाँ को याद करते हो। जो अस्ल है, उसको किसी तरह से कहा नहीं जा सकता। कोई कहता है कि दुनिया तेज़ी से बदल रही है, तुम सोचते हो यह सिर्फ़ भाषाई खेलों में हो/दिख रहा है—इतिहास की निर्ममताओं ने तुम्हें कभी कोई ग़फ़लत पालने नहीं दी।
अस्ल से साक्षात्कार हमेशा भाषा के बाहर होता है, फिर भाषा में उसको पाना हमेशा कम रहेगा। तुम काल्पनिक और प्रतीकात्मक जैसे कठिन शब्दों को हताशा से देखते हो, किसी बड़े ब्लैकबोर्ड पर से उसे मिटाते हो और फिर भाषा में जाकर छिप जाना चाहते हो। इन विरोधाभासों से तुम्हें ताउम्र जूझना है। तुम्हारे जतन, अपनी हताशाओं को छिपाने के, तुम्हें मुजरिम बनाते हैं। तुम कितने मुक़दमों में बैठोगे, एक पुराने कवि के घर के बाहर भारी नशे में सिर झुकाते हुए, एक पतझड़ में तुमने उससे पूछा था। तुम्हारी देह धूल बनकर झड़ती जा रही है। तुम किससे कह रहे हो, तुम नहीं जानते।
अभी जब तुमने उसको भी खो दिया है, जिसके न होने की कोई तैयारी तुमने नहीं की थी; जिसको तुमने आदर्श नायिका समझा था, वह भी तुम्हारा नहीं था। क्या तुम शेक्सपियर के एक क़ब्रिस्तान में एक लाश के दफ़नाए जाने से पहले, एक खोपड़ी हाथ में लेकर, क़ब्र खोदते बूढ़ों के साथ खड़े हो? उसका अ-नायक भी एक मुक़दमे में खड़ा है। तुम भी नायक खोजते अ-नायक हो। तुम पर अर्थ चस्पाँ किए जाते हैं, तुम उन्हें झाड़ते हो और देखते हो अपनी त्वचा भी हवा में बहते हुए।
तुमसे कविता पर सवाल पूछे जाते हैं। सीधे सवाल। उनकी उम्मीद रहती है कि तुम उनके हिसाब से जवाब दोगे, उनको एक सूत्र दे दोगे, स्टेप बाई स्टेप। तुमको यह अकाव्यात्मकता असंतुष्ट करती है। तुम उनका अनादर नहीं करना चाहते, न यह चाहते हो कि ख़ुद को असर्ट करो। तुमने सीखा है कि कवियों को अंडरस्टेटेड होना चाहिए। इस समय की परिभाषा में लाउडनेस रची-बसी है। इस कोफ़्त का नाम ही क़ानून है। फिर इस उम्मीद को ख़ारिज करो कि कोई गहरे उतरना चाहता है। जिसे तुम गहरा समझते हो, वह भी छिछला है। यही इकलौता अभिधात्मक सत्य है। कोई संबंध सीधा नहीं है। इसके लिए तुम साहित्यिक संदर्भ देना चाहते थे और फिर तुम को कैल्विनो का एक उपन्यास याद आया और उसके नायक के बारे में लिखा एक पैराग्राफ़। तुमने यह यत्न छोड़ दिया।
तुम मूल की तरफ़ लौट जाओ। सीधे-सीधे कुछ मत कहो। अपनी ग्लानियों में रहो। अपने दुखों का सहवास करो। अपने आपको क्षमा करो कि किसी बेवक़ूफ़ी में तुमने किसी से कह दिया था, सब ठीक हो जाएगा।
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अंचित को और पढ़िए : ...इस साल का आख़िरी ख़त | विरह राग में चंद बेतरतीब वाक्य
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