संत शिवदयाल सिंह की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 35
जीव जले विरह अग्नि में, क्यों कर सीतल होय।
बिन बरषा पिया बचन के, गई तरावत खोय॥
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बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥
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क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन।
गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई न पावे चैन॥
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मैं तड़पी तुम दरस को, जैसे चंद चकोर।
सीप चहे जिमि स्वाति को, मोर चहे घन घोर॥
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गुरु भक्ति दृढ़ के करो, पीछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कभी न काटा जाय॥
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