विकल विषाद-भरे ताहीं को तरफ तकि

wikal wishad bhare tahin ko taraph taki

घनानंद

घनानंद

विकल विषाद-भरे ताहीं को तरफ तकि

घनानंद

विकल विषाद-भरे ताहीं को तरफ तकि,

दामिनिहूँ लहकि बहकि यौं जर्यौ करे।

जीवन-अधार-पन-पूरित पुकारनि सों,

आंत पपीहा निति कूकनि कर्यौ करे॥

अधिर उदेग-गति देखि कै अनंदघन,

पौन बिडर्यौ सो बनबीथिन रर्यौ करे।

बूँदें परति मेरे जान जान प्यारी, तेरे

विरही कों हेरि मेघ आँसुनि झर्यौ करै॥

हे सुजान, तुम तो अपने प्रिय की ओर उन्मुख ही नहीं होती हो पर इस वर्षा ऋतु में प्रकृति के सभी मुख्य अवयव तुम्हारे प्रेमी की समानुभूति में ही अपनी सारी क्रियाएँ करते दिखाई देते हैं। बिजली विषाद से युक्त तुम्हारे विरही को और ध्यान से देखकर और उसकी विरहाग्नि से विह्वल होकर जलती रहती है। जीवन जल के आधार मेघ के प्रति अपने प्रण से पूर्ण हो चातक अपनी नैसर्गिक पुकार नहीं कर रहा है, अपितु अपनी प्राणधारा के प्रति अपनी प्रतिज्ञा की वृत्ति पूर्ण करने में लीन तुम्हारे प्रेमी की मौन पुकारों से व्यथित होकर ही यह नित्य अपनी कूक किया करता है। पवन भी जो वन-वीथियों में इधर-उधर भटकता हुआ दिखाई देता है वह उसकी प्राकृतिक स्थिति नहीं है। प्रत्युत वह भी तुम्हारे प्रेमी की अस्थिर और उद्वेग से पूर्ण स्थिति देखकर दु:ख के मारे रट लगाए हुए घूमता रहता है। बादल से गिरने-वाली बूँदें भी वस्तुत: वर्षा की झड़ी नहीं हैं अपितु विरही को देखकर मेघ स्वयं दु:खी हो गया है और वह उसी दु:ख में अपने आँसुओं की झड़ी लगाए रहता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 224)
  • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
  • रचनाकार : घनानंद
  • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
  • संस्करण : 1972

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