Font by Mehr Nastaliq Web

विशाल-भारत

wishal bharat

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

विशाल-भारत

मैथिलीशरण गुप्त

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

उठ अमिताभ, लाभ कर निज पद,

लुटा, लक्ष्य पर लाल।

जीवन के अरुणोदय में ही

होमामोद पवित्र—

फैल गया पृथ्वी में तेरा,

बजे त्रिदिव-वादित्र।

दो देशों के संधिपत्र में,

चिर-चारु-चरित्र,

साक्षी होते थे तेरे ही

इंद्र, वरुण, वसु, मित्र;

गूँजे तेरे ही मंत्रों से

जल, थल, नभ, पाताल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

बेध गई वासुकि की मणि को

तेरे मख की मेख,

धर्म-स्तंभ उठे अंबर में,

शिलातलों पर लेख।

जल पर नहीं, उपल पर तूने

खींची अक्षय रेख,

अब भी देश-विदेशों में निज

शेष मूर्तियाँ देख;

तेरे आदेशों के आगे

प्रणत हुआ भव-भाल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

विश्व-विजय के स्वप्नों में थे

ग्रीस, रोम, ईरान,

और हो रहे थे बेचारे

बस-बस कर वीरान।

तूने ही मैत्री-करणा का

गाया था तब गान,

पाया था संपूर्ण अवनि में

अग्र-दूत का मान;

एक बार तू उस अतीत की

ओर दृष्टि तो डाल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

दिया स्व हेतु महत्व जिसको

तूने किसी प्रकार,

पर जिसके हितार्थ त्यागा था

राज-पाट, घर-बार,

बाट देखता है फिर तेरी

वह व्याकुल संसार,

सुन, वह चारों ओर मचा है

दारुण हाहाकार।

जकड़ रहा है मकड़-जाल-सा

उसे स्वयं निज जाल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

स्वार्थ आज भी करा रहा है

विषम विश्व-विद्रोह,

सभ्य वेश में, दस्य दुराशय,

बजा रहे हैं लोह।

नहीं धर्म पर, धन-धरती पर

अड़ा लोभ मय मोह,

वह अशोक-साम्राज्य-निदर्शन

निष्फल था क्या ओह!

तू ही सफल करेगा उसको,

आ, अपना व्रत पाल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

देख रहे हैं सागर तेरे

जल-यानों की बाट,

स्वागतार्थ आतुर, उत्सुक हैं

उनके सारे घाट।

मेटें तेरे बुद्ध वीर फिर

विषम युद्ध-विभ्राट—

लूट पाट की, मार काट की,

नर शोणित की चाट।

हृदय हीन हिंसक बदलेंगे

सहज अपनी चाल!

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

उठ, फिर देव-पितर अंबर में

होकर सब समवेत,

देने को उद्यत हैं तुझको

स्वस्ति और संकेत।

उठ, प्रत्यय-दृढ़ निश्चय पूर्वक,

साहस शौर्य समेत,

पूर्व प्रमादों से शिक्षा ले,

तज यह तंद्रा, चेत।

अपने ही अधीन हैं अपने

बंध-मोक्ष चिरकाल,

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

विश्व मिलन का भार उठा कर

बैठ यों तू हार,

“चित्ते दया, समर-निष्ठुरता

व्यर्थ और विस्तार।”

धर्म राम का, कर्म कृष्ण का,

प्रेम बुद्ध का धार,—

और अहिंसा महावीर की,

सर्व समन्वय-सार।

कौन सँभाल सकेगा तुझको,

स्वयं स्वरूप सँभाल,

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

तेरे ही स्वर का साधक है

भव-भविष्य-संदेश,

किंतु कंठ में पाश पड़ा है

तेरे, मेरे देश!

यह कैसा अपमान और हा!

है यह कैसा क्लेश!

आने दे तू आत्म-स्मृति का

एक उष्ण आवेश।

शीतल पाकर ही चंदन पर

लिपटे हैं बहु व्याल।

उठ, वृहद्, विराट, विशाल!

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 37)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994

संबंधित विषय

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY