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स्वराज्य की अभिलाषा

swarajya ki abhilasha

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

स्वराज्य की अभिलाषा

मैथिलीशरण गुप्त

शत शत सम्राटों के स्वामी!

हे अनंत! हे अंतर्यामी!

सुख का स्वप्न है कि आशा है यह स्वराज्य की अभिलाषा

किसने इसको उदित किया है?

मुरझे मन को मुदित किया है;

तुमने केवल तुमने प्रभुवर! कहती है अंतर्भाषा॥

बैठ तुम्हारे साहस-रथ में

हम रुकेंगे अपने पथ में;

नाथ! तुम्हारी इच्छाओं को बाधाएँ ही बल देंगी।

सत्य और विश्वास मिलेंगे;

काँटों मे ही फूल खिलेंगे;

उद्योगों की कल्पलताएँ मनमाने शुभ फल देंगी॥

काला रंग बाधक होगा,

गोरों का गुण साधक होगा;

एक हृदय का मिलन हमारा तीर्थराज संगम होगा।

उन्नति में रुकावट होगी,

होंगे योग्य उच्चपद-भोगी;

आत्मा की सच्ची समता से मनुज मनुज के सम होगा॥

कभी नैतिक घातें होंगी,

मुक्त मानसिक बातें होंगी;

विधि-विधान मे फिर निजत्व का हमको अटल गर्व होगा।

पक्षपात, मतभेद होगा

ग्लानि होगी, खेद होगा;

न्याय-सभाओं में विचार का प्रकटित पुण्य पर्व होगा॥

सुलभ सभी को होगी शिक्षा,

नहीं माँगनी होगी भिक्षा;

फिर सारे व्यापार हमारे अपने ही करगत होंगे।

उपनिवेश यमपुर रहेंगे,

वहाँ हम अपमान सहेंगे।

उनके वे उद्धत अधिवासी अपने आप प्रणत होंगे॥

निम्मश्रेणी के अधिकारी

रह सकेंगे स्वेच्छाचारी;

जान-माल की रक्षा के मिस प्रजा पिसने पावेगी।

शासक और शासितों में फिर—

चिर विश्वास रहेगा, सुस्थिर;

समस्नेह से नियम-चक्र की धुरी घिसने पावेगी॥

हिंस्र जंतु कुछ कर सकेंगे,

हम उनसे यों डर सकेंगे;

हरी-भरी खेती को सकूर फिर यों नहीं उजाड़ेंगे।

होंगे स्वयं शस्त्रधारी हम,

वीर भाव के अधिकारी हम;

निज साम्राज्य-सत्व-रक्षा का झंडा हम सब गाड़ेंगे॥

परमात्मन् ऐसा कब होगा?

जब होगा बस तब सब होगा;

ब्रिटिश जाति का गौरव होगा, उच्च हमारा सिर होगा।

वह इंग्लैंड और यह भारत,

होंगे एक भाव में परिणत;

दोनों के यश का दिगंत मे पुण्य पाठ फिर फिर होगा॥

स्रोत :
  • पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली -3 (पृष्ठ 108)
  • संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2008

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