मेरे भीतर की कोयल

mere bhitar ki koel

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरे भीतर की कोयल

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरे भीतर कहीं

एक कोयल पागल हो गई है।

सुबह, दुपहर, शाम, रात

बस कूदती ही रहती है

हर क्षण

किन्हीं पत्तियों में छिपी

थकती नहीं।

मैं क्या करूँ?

उसकी यह कुहू-कुहू

सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।

कहाँ से लाऊँ

एक घनी फलों से लदी अमराई?

कुछ बूढ़े पेड़

पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं

यही क्या कम है!

मैं जानता हूँ

वह अकेली है

और भूखी

अपनी ही कूक की

प्रतिध्वनि के सहारे

वह जिए जा रहे है

एक आस में—

अभी कोई आएगा

उसके साथ मिलकर गाएगा

उसकी चोंच से चोंच रगड़ेगा

पंख सहलाएगा

यह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।

कुहू-कुहू

उसकी आवाज़—

वह नहीं जानती

मैं जानता हूँ

अब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।

कुछ दिनों बाद

इतनी शिथिल हो जाएगी

कि प्रतिध्वनियाँ बनाने की

उसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।

वह नहीं रहेगी।

मेरे भीतर की यह पागल कोयल

तब मुझे पागल कर जाएगी।

मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगा

और पत्तियाँ गिनता रहूँगा

ख़ामोश।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 42)
  • रचनाकार : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1989

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