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संवादहीनता

sanwadhinta

कुमार मंगलम

कुमार मंगलम

संवादहीनता

कुमार मंगलम

 

एक

अचानक
बहुत बोलता आदमी चुप हो गया

और अचानक एक चुप्पी
अधिक वाचाल

दो

कुछ बातें थीं
कही कुछ अनकही थीं

अनकही बातों में
मैं था

तीन

जाने और लौटने
के तनाव में
कुछ टूट रहा था

कहीं कुछ बचा रह गया था
वो संवाद न था

चार

बहुत वर्षों बाद
गर हम मिलें
शिकायतें न हों

संभव हो तो एक
संवाद की जगह
बची रहे शेष

पाँच

कुछ बातें कहीं गई थीं
सीधी और सपाट

उन बातों को भी
सोचा गया
सोचने से बातें टेढ़ी हो गई थीं

छह

कई बार
अबोले में
जो संवाद रचे जाते हैं

वो नश्तर की तरह
छलनी करती है करेजे को

सात

दबे पाँव प्रवेश करती है
बिल्ली

चुपके से जगह बनाती है

सबसे पहले भाषाएँ बदली जाती हैं
सत्ता की

संवाद की प्रथम शर्त भाषा में निहित है

आठ

नफ़रत की भाषा
आसान है
प्रेम की भाषा और
मनुष्यता की भाषा से

संवाद की सबसे आकर्षक भाषा
और प्रभावी भी
सबसे आसान है

नौ

दुनिया का सबसे बेहतर
संवाद का अंत
एक बेहतरीन झूठ है
जिसका जवाब :
‘मैं अच्छा हूँ’ है

दस

संवाद का सबसे आत्मीय माध्यम
एकालाप है
संबंधों के फ़रेब से बनता यह संसार
जहाँ जगह नहीं है संवाद की
बातचीत, पंसद-नापसंद, भावनाएँ
ढोंग भर हैं

संवादविहीन मंच
आत्म-प्रदर्शन और श्रेष्ठता-बोध का उत्कृष्ट उदाहरण है
जहाँ असहमतियाँ खेल रचती हैं बुद्धि का

संवाद से संवादहीनता की ओर की
इस दौड़ में
हर बार लहूलुहान सिर्फ़
भाषाएँ ही हुई हैं

हर बार मरती है एक भाषा
आत्मीयता से परे
हर बार निर्मित हुई है
एक नक़ली और खोखली भाषा
भाषाओं के फ़रेब को रचता है मनुष्य
मनुष्य ने रचा है असंवाद

स्रोत :
  • पुस्तक : पूर्वग्रह 166-67 (पृष्ठ 215)
  • संपादक : प्रेमशंकर शुक्ल
  • रचनाकार : कुमार मंगलम

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