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अभियोग से पहले

abhiyog se pahle

अलेक्सांद्र ब्लोक

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अलेक्सांद्र ब्लोक

अभियोग से पहले

अलेक्सांद्र ब्लोक

और अधिकअलेक्सांद्र ब्लोक

    दृष्टि झुका ली है तुमने क्यों असमंजस में?

    पहले की ही तरह ज़रा देखो तो मुझको!

    दीन-हीन तुम देखो तो कैसी लगती हो,

    इस दिन के तीखे औ' अकलुष उजियाले में।

    मैं भी तो अब नहीं रहा वह पहले जैसा—

    दुर्लभ और पवित्र, क्रुद्ध, कोरा अभिमानी;

    विनय दृष्टि से मैं हताश-सा देख रहा हूँ

    सरल और रसहीन राह धरती पर अपनी।

    मुझे नहीं अधिकार, मुझमें शक्ति रही वह,

    मैं कर सकूँ तुम्हारी कोई आज भर्त्सना;

    कि तुम बिताती रहीं दुखद, आडंबर के दिन—

    ऐसा भाग्य अनेक नारियों ने भोगा है।

    किंतु ज्ञात है मुझे तुम्हारे जीवन की गति,

    औरों से कुछ अधिक ज्ञान है मुझे तुम्हारा;

    न्यायाधीशों से भी अधिक बता सकता हूँ,

    कैसे पहुँची हो तुम अब इस कगार पर।

    कैसा मरण-ज्वार था वह जो हमें एक दिन

    ठेल-ठेलकर ले आया था इस कगार पर,

    हमने चाहा था कि तोड़कर अपने बंधन

    साथ-साथ हम उड़ें, गिरें भी साथ-साथ ही।

    तुम हरदम बस यही स्वप्न देखा करती थीं—

    जलना हो तो साथ-साथ हम जलें अंत तक;

    और परस्पर भुजबंधन में जब दम टूटे,

    तो हमको वरदान मिले आनंद-लोक का।

    किंतु करे भी क्या कोई यदि इस सपने ने

    हमें छला, सपने तो छलते ही रहते हैं;

    यदि अंधे जीवन ने हम पर निर्दय होकर

    लगातार ये भीषण कोड़े बरसाए हैं।

    कर्मव्यस्त जीवन क्यों चिंता करे हमारी,

    और स्वप्न भी स्वप्न सिद्ध हो गया अंत में;

    लेकिन देखो सच बतलाना, तुमको मुझसे

    मिल सका सुख कम-से-कम क्या एक बार भी?

    मेरी उँगली में लिपटा यह बाल सुनहला

    क्या उस परिचित दीप-शिखा का चिह्न नहीं है?

    संकोचहीन मदमाती चपला मेरी,

    अरी अविस्मरणीया! मुझे क्षमा कर देना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 46)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र ब्लोक
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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