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रात का ढाबा

raat ka Dhaba

अरुण कमल

अन्य

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अरुण कमल

रात का ढाबा

अरुण कमल

और अधिकअरुण कमल

    ऐसे अब भी हैं बहुत यहाँ

    जिन्हें चाहिए रोशनी रात में

    अब भी हैं बहुत यहाँ

    जो टिमटिमा रहे अकेले निहंग एक छोर

    दीप्त बादलों के पार

    घुंडी में बंद पारे की बूँद

    शीत हो या ताप

    चौड़ी हो रही हैं सड़कें

    चढ़ रही है रात धीरे-धीरे

    रहे होंगे ईरानी लड़के-लड़कियाँ

    अकेला विधुर केंचुल में लिपटा

    रही होगी वो युवती मीना बाज़ार-सी

    आएँगे रात की पाली के छूटे मज़दूर

    ज़ोर-ज़ोर से बोलते

    आकर बैठेगा बेंच पर सफ़र में फँसा अनजान राहगीर

    बैठा रहेगा देर तक वो जिसे भोर में बेचना है ख़ून

    जब सारे फूल मूँदते हैं अपना शरीर

    ठीक तब खुलते हैं फूल कुछ रात में

    बिलों से निकलती है मर्म की मिट्टी

    प्रगट होता है छुपा हुआ जल पत्ती की नोक पर

    जब ठंडे हो रहे होते हैं सारे चूल्हे

    तब पूरे ताव पर होता है रात का ढाबा

    कुछ धुँवा-धुँवा लग रहा है

    चाँद पीछे ढह रहा है

    सोचा भी था कि मिलोगे तुम यहाँ

    कि इतने दिन पर देखूँगा चेहरा तुम्हारा

    भट्ठी की धाह में उठता-गिरता

    गिर रही ओस बदन तप रहा है

    चाँद पीछे ढह रहा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण कमल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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