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ताकि कुछ भी परिवर्तित न हो

taki kuch bhi parivartit na ho

रेने शार

अन्य

अन्य

रेने शार

ताकि कुछ भी परिवर्तित न हो

रेने शार

और अधिकरेने शार

    1.

    मेरा हाथ थामो और इस काले ज़ीने पर चढ़ना शुरू करो ओ
                                                     समर्पित, देखो
    कि हमारे आदिम अस्तित्व की तृष्णाकुलता धुँआ देने लगी है
    और विराट नगर सिर्फ़ लोहा और दूरागत आवाज़ें बन गए हैं।

    2.

    हमारी कामना ने समुद्र का गुनगुना आवरण धीरे-धीरे से उतार
                                                           लिया है—
    उसके वक्ष पर तैरने से पहले।

    3.

    तुम्हारी आवाज़ के फूल में। पक्षियों की उड़ान सूखे मौसम की
    हर चिंता को हर रही है

    4.

    जब रेखांकित बालू, धरती की धीमी बैलगाड़ियों से गिरती हुई,
    दिशा-स्तंभ बन जाएगी, तब हमारे आँगनों में शांति अवतरित
                                                               होगी।

    5.

    खंड मुझे चीर देते हैं। अत्याचार मुझे तानकर खड़ा कर देता है।

    6.

    अब न आकाश उतना पीला है, न सूरज उतना नीला।
    वर्षा का अलसाया सितारा उग आया है। बंधु,
    ओ निष्ठावान, तुम्हारा जुआ उतर गया है। तुम्हारे कंधों
    पर ज्ञान उग आया है

    7.

    सुंदरता मैं तुमसे मिलने शीतल एकांत में जा रहा हूँ। तुम्हारा
    प्रदीप गुलाबी है, हवा झिलमिलाती है। साँझ की देहरी टूट चुकी है

    8.

    मैं जो बंदी हूँ, मैंने पत्थरों पर फैलने वाली लता का—
    धैर्य ग्रहण किया है—अनंत अज्ञान की चट्टान को जीतने के लिए

    9.

    मैं तुम्हें प्यार करती हूँ हवा कहती है उन सबों से जिन्हें वह
                                                             छूती है।
                       मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और तुम
                            मुझमें जीवित हो

                                        
    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 321)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : रेने शार
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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