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मुझे बार-बार ठुकराया जाना है

mujhe bar bar thukraya jana hai

निखिल आनंद गिरि

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निखिल आनंद गिरि

मुझे बार-बार ठुकराया जाना है

निखिल आनंद गिरि

और अधिकनिखिल आनंद गिरि

    चाँद को आज होना था अनुपस्थित

    मगर वो उगा आकाश में

    जैसे मुझे धोनी थी एड़ियाँ,

    साफ़ करने थे घुटने रगड़ कर,

    तुमसे मिलने से पहले

    मगर हम मिले यूँ ही

    हमारे गाँव नहीं आने थे उस रात

    शहर की बातचीत में

    मगर आए

    तुम्हारी हँसी में छिप जाने थे सब दुख,

    मगर मैं नीयत टटोलने में व्यस्त था

    हमारी उम्र बढ़ जानी थी दस साल,

    मगर लगा हम फिसल गए

    अपने-अपने बचपन में

    जहाँ मेरे पास किताबें हैं

    और गुज़ारने को तमाम उम्र

    तुम्हारे पास जीने को है उम्र

    जिसमें मुझे बार-बार ठुकराया जाना है

    साँस-दर-साँस

    हमें बटोरने थे अपने-अपने मौन

    और ख़ुश होकर विदा होना था

    मुझे सौंपनी थी आख़िरी बरसात

    तुम्हारे कंधों पर,

    मगर तुम्हारे पास अपने मौसम थे

    मुझे तुमसे कोई और बात कहनी थी,

    और मैं अचानक कहने लगा—

    कि ये शहर डरावना है बहुत

    क्योंकि रात को यहाँ कुत्ते भौंकते हैं

    और मंदिरों के पीछे भी लोग पेशाब करते हैं,

    इसीलिए रिश्तों से बू आती है यहाँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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