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मेट्रो से दुनिया

metro se duniya

निखिल आनंद गिरि

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निखिल आनंद गिरि

मेट्रो से दुनिया

निखिल आनंद गिरि

और अधिकनिखिल आनंद गिरि

    एक बाँह सटे-सटे

    हिचकोले खाते चली बॉटेनिकल गार्डन से

    बिछड़ी मंडी हाउस के आस-पास शायद।

    एक कंधा सटे-सटे

    बिन देखे बातें करता

    चलता रहा नोएडा से

    मुस्कुरा कर बिछड़ा शादीपुर में।

    कई कपड़े सूखते रहे मेट्रो के उस पार

    बालकनियों और छज्जों पर

    मन हुआ चिल्लाकर कह दूँ

    उड़ रहा है एक कपड़ा

    क्लिप लगा दो।

    गिरने-गिरने को है

    कोई ढका हुआ बनियान

    निचले तल्ले पर

    झट आकर लड़ पड़ेगी नीचे वाली मैडम

    एक ग़ुस्से को फूटता हुआ देख नहीं सकूँगा

    रफ़्तार भरी मेट्रो से।

    एक भली-सी दिखती लड़की

    बुरे नेटवर्क में मोबाइल लेकर बैठी है छज्जे पर

    एक चश्मे वाले सज्जन अख़बार में घुसे हुए हैं

    पूरा शहर धुएँ में हैं

    शोर में है

    पानी की टंकी भर गई है

    कोई देखने वाला नहीं है।

    मेट्रो के उस पार

    जैसे कोई फिल्म चल रही है

    बिना टिकट।

    एक गंदे बालों वाला युवक

    थूकने की जगह ढूँढ़ता रहा प्लेटफ़ॉर्म पर

    फिर चोरी से ढूँढ़ ली एक साफ़ जगह।

    मैं अपना ग़ुस्सा दबाए बढ़ता जा रहा हूँ

    ऐसे कई क़िस्सों को आधा-अधूरा छोड़कर।

    एक बूढ़ा होता आदमी

    झाँकता ही जाता है

    एक लड़की के मोबाइल में

    दो लड़के और झाँकते हैं इधर-उधर

    मेट्रो में सब झाँकते बढ़े जाते हैं

    अपनी मंज़िल की ओर।

    एक बच्ची उलट रही है इधर-उधर

    एक बच्चा प्यास से बिलट रहा है

    उसकी चीख़ से टूट रहा है

    पूरे डिब्बे का सब्र

    अच्छे-भले-सजे-सँवरे दिखते लोग

    अचानक बंजर होकर घूरने लगे हैं

    बच्ची निडर तेज़-तेज़ रोती चलती जा रही है

    मेट्रो इन सबको ढोती चलती जा रही है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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