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मेनका : उजाला / अँधेरा

meinka ha ujala / andhera

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

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वीरभद्र कार्कीढोली

मेनका : उजाला / अँधेरा

वीरभद्र कार्कीढोली

और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली

    सपनों को समय से भुलाने की

    मत सोचो

    समय और सपने

    जीवन साथी हो ही नहीं सकते!

    और समय की प्रातः घोषणा कर

    भ्रम में मत डालो किसी को

    हत्या कर रहा है आजकल

    अँधेरा ही अँधेरे की।

    उड़ने के लिए पंख

    नहीं चाहिए मुझे

    कल्पना के पंखों से उड़कर वास्तविकता तक

    पहुँचा हूँ—

    याद नहीं है, अभी तक।

    मेरी ख़ुशी, तुम्हारी ख़ुशी नहीं हो सकती

    ज़रूरत नहीं है, मेनका!

    मेरे आनन्द और एकान्त में

    आग लगाने वाले तुम्हारे कोमल हाथ

    तुम्हारा स्वर्ग / मेरी दुनिया

    प्रातः और पल का अंतर है।

    अतः रातोंरात जन्मे स्वर्ग सौंदर्य की उम्र

    गुलाब के फूलों से भुलाने जाना

    नींद की झपकी में सपने देखकर

    सपनों से समय को भुलाने की मत सोचना।

    सूखे की याद कर

    गेंदे और गुलदाउदी से कैक्टस भूलने की

    चाहत रखने वाला नहीं हूँ मैं

    सूरज के डूबते ही

    मुझे याद आते हैं

    वे पल और सपने।

    आग के जलने से नष्ट उजाड़ मन

    खिलने लगी हैं।

    अब नई कलियाँ।

    वही रंग / वही ब्रश

    उसी कैनवास पर ज़िंदगी को पोतकर

    मेरी ज़िंदगी, मुझी को खरीदने

    आओ मेनका!

    एक ही झपकी में दिखे सपने से

    समय को भुलाने की मत सोचो

    आजकल उजाला ही उजाले की

    उजाले में ही हत्या कर रहा है

    मेनका!

    फिर हत्या कर रहा है!

    आजकल अँधेरा ही अँधेरे की

    हत्या कर रहा है...!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 80)
    • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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