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मीर मैं तुम्हारे सिरहाने बोल रहा हूँ

meer main tumhare sirhane bol raha hoon

सत्येंद्र कुमार

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सत्येंद्र कुमार

मीर मैं तुम्हारे सिरहाने बोल रहा हूँ

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

     

    उन तमाम बच्चों के लिए, जो अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंध के कारण मारे गए

    तुम्हारे दुखों को मैं जानता हूँ
    तुम्हारे आँसू मेरे चेहरे को भिगो रहे हैं
    मैं जानता हूँ
    तुम अभी-अभी रोते-रोते सोए हो
    फिर भी; 
    मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर बोल रहा हूँ, 
    मीर!
    बहुत उदास है रात, 
    पसरा है मातमी सन्नाटा
    कहीं से कोई आवाज़ नहीं
    कोई पुकार भी नहीं
    मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ
    तुम्हारे सिरहाने
    कल जहाँ घास के मैदान थे
    अब वहाँ क़ब्रें हैं।
    जहाँ सोए हैं बच्चे
    जो कभी नहीं जाएँगे
    वे इराकी हैं
    फ़िलिस्तीनी हैं
    सर्बियाई हैं
    अफ़गानी हैं।
    मीर!
    उन बच्चों की क़ब्रें उदास-सी निर्जन पड़ी हैं।
    उन पर घास उग आई है।
    उन पर किसी ने फूलों के गुच्छे नहीं रखे
    कहीं कोई मोमबती नहीं जल रही 
    प्रार्थना का कोई स्वर नहीं सुनाई पड़ रहा है
    कहीं उनके लिए एक मिनट का मौन नहीं रखा गया
    उनके लिए मर्सिया नहीं पढ़ा गया
    उन्होंने जो जीवन खोया
    उसकी कोई पहचान बाक़ी नहीं है
    मीर!
    वे मरे नहीं
    मारे गए।
    उन्हें उनकी माँ की गोद से दूर कर दिया गया
    उनकी धरती से दूर कर दिया गया
    उनकी हवा से दूर कर दिया गया
    उनकी रोटियाँ छीन ली गईं
    दवाइयाँ छीन ली गईं
    उनके खिलौने
    उनकी धरती 
    उनकी हवा पर
    प्रतिबंध लगाए गए।
    मीर, आज जो लाखों बच्चे क़ब्रों में सोए पड़े हैं।
    कल तक,
    उनका अपना आकाश था
    अपने गीत थे
    अपना शहर था
    घास के मैदान थे
    घाटियाँ थीं 
    उनके घर थे, चूल्हे थे
    उनकी नींद थी
    और उनके सपने थे।
    देखो
    बच्चों की क़ब्रें हैं
    जो दीख रही हैं
    नहीं दीख रहे हैं तो वे
    जो इनके हत्यारे हैं
    जो प्रतिबंध लगाते हैं
    और मौत देते हैं।
    मीर,
    कितनी रातें
    कितने ग़म
    कितनी बातें बीत गईं,
    उनके दर्द की दास्ताँ कहते-कहते
    बादल भी रो गए
    भले ही उनकी मौत का ज़िक्र
    शहंशाहों की गलियों में न हो।
    लेकिन अपने आँसुओं से तर
    चेहरे के साथ जागो, मीर!
    और एक दीप उन बच्चों की क़ब्रों पर जला दो,
    जो अभी-अभी रोते-रोते सो गए हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 118)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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