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युग की आवाज़

yug ki awaz

अनुवाद : इबोहल सिंह काड़्जम

नीलबीर शर्मा शास्त्री

अन्य

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और अधिकनीलबीर शर्मा शास्त्री

    देश और जाति की आपसी शत्रुता सह नहीं सका मानव

    मार-काट की आवाज़ों से भर गया सारा संसार,

    बम-तोप के दर्द को काँपती हुई सहने लगी पृथ्वी

    भाई-भाई की मार-काट, शक्तिशाली द्वारा निरीहों पर अत्याचार।

    कई बार खेली जा चुकी है मानव तेरी कई संहार लीलाएँ

    बार-बार घट चुके हैं तेरे हाथों से बने खंड-प्रलय,

    शत्रुओं की वेदी पर कई बार किए गए हैं बलिदान

    करोड़ों लोगों का लहू पीने पर भी तृप्त नहीं हुई युद्ध की देवी।

    निष्ठुर मानव भयंकर अस्त्र-शस्त्र धारण कर रहे हैं

    जंगली हाथी की तरह दाँत तैयार कर रहे हैं,

    ख़ून बहा रहे हैं बार-बार, गरज रहे हैं ज़ोर-ज़ोर से

    प्रकृति की मनोरम बगिया जल कर मरघट बन रही है।

    जलियाँवाला बाग़ का जनसंहार भूला नहीं अभी इस जगत ने

    दो ही वज्र गिरे थे छोटे-से जापान की भूमि पर

    मानव तू याद कर, कानों को बंद करता था डर कर

    बरसने वाली है अग्नि-वर्षा, छा गई बिजली आकाश में।

    रो रहा है खूबसूरत बर्लिन मणि-वंचित सर्प जैसा

    धन-सम्पत्ति खो जाने के कारण बिलख रहा है आज भी जापान,

    अमेरिका के सोने की खान की ओर उड़ता है रशिया का अग्नि-पिण्ड

    सुन लो हे लंदन, धरती माँ का क्रंदन।

    टूटने दो चीन की दीवार, डूबने दो हिमालय समुद्र में

    सूखने दो सारा महासागर, जिससे सीमा का बाड़ा रह जाए

    दूर हो जाए रंग-भेद की शत्रुता, मिट जाए शक्ल-सूरत की क्रूरता

    संतप्त मरुभूमि रूपी धरती में शांति का फूल खिलने दो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक मणिपुरी कविताएँ (पृष्ठ 20)
    • संपादक : देवराज
    • रचनाकार : नीलबीर शर्मा शास्त्री
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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