कुहरा

kuhra

अनुवाद : वेद राही

रहमान राही

और बाहर कुहरा था

और चुप

और ठंड

पेड़ों के बदन पर पहनने को चीथड़ा तक था

मिट्टी की कच्ची दीवारें यहाँ से वहाँ तक भीख माँग

रही थीं,

मुझे चूल्हे के माथे पर भूरी राख नज़र आई

और मैं बिना कांगड़ी के

खिड़की के क़रीब खड़ा था।

नीचे सड़क पर जब भी कोई परछाईं गुज़री

जी में आया उससे पूछूँ

किधर का इरादा है, क्या हो जो मुझे भी अपने

साथ ले चलो

उधर कुहरा था

और चुप

और ठंड

मैं फिर से किचन के कोने में बैठ गया।

‘द्रुख...द्रुख’ पानी भरा नल फटना

चाहता था

चूल्हे में घास-फूस को आग दिखाई गई

धुएँ के गुब्बारे चूल्हे के माथे पर से

राख़ को उठाकर अपने साथ ले गए घुमाते, टहलाते...

घुमाते, टहलाते...।

चूल्हे के ऊपरी दहाने में से

एक लाल नीला गोला भड़क उठा

अनगिनत लोगों ने चिल्लाकर पुकारा मुझे

दरवाज़े को तेज़ हवा झकझोर रही है

और छत पर बारिश की बूँदों की टपटपाहट

और आँगन में से झरने बह निकलेंगे

और सारे मुहल्ले में घूम-फिरेंगे

और ज़मीन अपने अनगिनत सुराखों द्वारा चूस लेगी

सारे आँसू।

स्रोत :
  • पुस्तक : रहमान राही की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 40)
  • संपादक : गौरीशंकर रैणा
  • रचनाकार : रहमान राही
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2009

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