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कील पर टँगी बाबूजी की क़मीज़

keel par tangi babuji ki qamiz

अरुण चंद्र राय

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अरुण चंद्र राय

कील पर टँगी बाबूजी की क़मीज़

अरुण चंद्र राय

और अधिकअरुण चंद्र राय

    आज बहुत याद रही है

    कील पर टँगी

    बाबूजी की क़मीज

    शर्ट की जेब

    होती थी भारी

    सारा भार सहती थी

    अकेले कील

    उसमें होती थी

    राशन की सूची

    जिसके बारे में बाबूजी

    हफ़्तों टाल-मटोल करते रहते थे

    माँ के चीख़ने-चिल्लाने के बाद भी

    तरह-तरह के बहाने बनाया करते थे बाबूजी

    फिर इधर-उधर से पैसों का जुगाड़ करने के बाद

    आता था राशन

    कील गवाह थी

    उन सारे बहानों का

    बहानों का भार जो बाबूजी के दिल पर पड़ता था

    उसकी भी गवाह थी कील

    बाबूजी की जेब में होती थी

    दादाजी की चिट्ठी

    चिट्ठी में दुआओं के साथ

    उनकी ज़रूरतों का लेखा-जोखा

    जिन्हें कभी पूरा कर पाते थे बाबूजी

    कभी नहीं भी

    कील सब जानती थी

    कील उस दिन बहुत ख़ुश थी

    जब बाबूजी की जेब में थी

    मेरे परीक्षा-परिणाम की कतरन

    जिसे सबके सोने के बाद

    गर्व से दिखाया था उन्होंने

    माँ को

    नींद से जगाकर

    कील उस दिन भी ख़ुश थी

    जिस दिन बाबूजी ने

    बाँची थी मेरी पहली कविता

    माँ को

    फिर से नींद से जगाकर

    बाबूजी की जेब में

    जब होती थी

    डॉक्टर की पर्ची

    जाँच की रिपोर्ट

    उदास हो जाती थी

    कील

    माँ से पहले

    ठुकने के बाद

    सबसे ज़्यादा ख़ुश थी

    कील

    जब बाबूजी लाए थे

    शायद पहली बार

    माँ के लिए बिछुए

    अपनी आख़िरी तनख़्वाह से

    आज

    बाबूजी नहीं हैं

    उनकी क़मीज़ भी नहीं है

    लेकिन कील है

    अब भी

    माँ के दिल में

    चुभी हुई

    हमारे दिल में भी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : खिड़की से समय (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : अरुण चंद्र राय
    • प्रकाशन : ज्योतिपर्व प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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